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________________ अहं का विराट् स्वरूप : संघ प्रमुख श्री चन्दन मुनि साधनों के द्वारा भी हो सकती है, किन्तु मन को शुद्ध बनाने के लिए, मन का मैल धोने के लिए जप को ही उत्तम साधन माना गया है । प्राचीन आचार्यों ने बड़ा सुन्दर लिखा है अभेददर्शनं ज्ञानं, ध्यानं निविषयं मनः । स्नानं मनोमलत्यागः, शौचमिन्द्रियनिग्रहः॥ इस श्लोक के चार चरणों में चार व्याख्याएँ दी गई हैं। ज्ञान की व्युत्पत्तिपरक व्याख्या है"ज्ञायते परिच्छिद्यते वस्तु येन तद् ज्ञानम्" जिसके द्वारा वस्तु जानी जाती है, अन्य वस्तुओं के साथ उसका पार्थक्य किया जाता है, उसे ज्ञान कहते हैं। लेकिन यहाँ ज्ञान को सूक्ष्म व्याख्या के साथ प्रस्तुत किया गया है । आचार्य कहते हैं- "अभेददर्शनम् ज्ञानम्" ज्ञान वास्तव में वह है, जो अभेददर्शन कराता है । जहाँ स्व-पर का भेद मिट जाता है, तू-मैं का विभाजन समाप्त हो जाता है, वही सच्चा ज्ञान है । जब तक दृष्टि में भेद विद्यमान है. तब तक ज्ञान केवल पुस्तकीय ज्ञान है। वह सम्यक्ज्ञान नहीं है। इसी प्रकार कहा गया-"ध्यानं निविषयं मनः" मन का निविषय हो जाना ध्यान है। केवल आँखें मूंदकर, आसन लगाकर बैठना ध्यान नहीं है, जब तक मन विषयों से उपरत न हो जाए। यदि मन सर्वथा निविषयी है तो चाहे कहीं किसी स्थिति में बैठे हों, ध्यान सधता जाता है । आचार्य आगे लिखते हैं "स्नानं मनोमलत्यागः" जिसके द्वारा मन के मल का विसर्जन हो, वह स्नान है । ऊपरी मैल को धोना केवल बाह्य स्नान है। किन्तु अन्तःशुद्धि वास्तविक स्नान है । चौथा चरण है-“शौचमिन्द्रियनिग्रहं" इन्द्रियों का निग्रह ही शौच है। यदि आप शुचि-पवित्र रहना चाहते हैं तो इन्द्रिय-संयम करना होगा। इन्द्रियों के असंयम से ही हम अपवित्र बनते हैं। इसीलिए यह उक्ति प्रसिद्ध है---"ब्रह्मचारी सदा शुचिः" । ब्रह्मचारी निरन्तर पवित्र बना रहता है। वह कभी अपवित्र नहीं होता। अतः मनोमल की शुद्धि के लिए जप उत्कृष्ट साधन है। जप की एक विशेषता और है-"अन्दर के और बाहर के क्लेशों को दूर हटाता है ।" दो प्रकार के क्लेश हैं-अन्दर के क्लेश काम, क्रोध, मोह आदि हैं तथा बाहर के क्लेश रोग, शोक, व्याधि, प्रतिकूलता आदि हैं । संसारी जीव इन दोनों प्रकार के क्लेशों से निरन्तर उत्पीडित बने रहते हैं । इस अर्ह जप के द्वारा वे सब प्रकार के क्लेशों को दूर हटा सकते हैं । यहाँ एक रहस्य और है। जीभ जप के साधन के रूप में प्रयुक्त होती है। रचना की दृष्टि से उसका कुछ भाग बाहर है और कुछ भाग कण्ठ के भीतर चला गया है । सन्तजन कहते हैं रामनाम मणिदीप धरु, जीभ देहरी द्वार। तुलसी भीतर बाहिरो, जो चाहसि उजियार ।। जिस प्रकार कमरे की देहली में रखा दीपक अन्दर के कमरे को तथा बाहर के आंगन को समान रूप से प्रकाशित करता है, उसी प्रकार इस जीभ को देहली मानकर इससे प्रभु-नाम का जप करें तो दोनों ओर प्रकाश होगा । अन्तर्-बाह्य दोनों प्रकार के संक्लेशों से छुटकारा होगा । यहाँ “मणिदीप" का प्रयोग भी विशिष्ट अर्थ में हुआ है । तेलादि से जलने वाले दीप हवा के झोंके से बुझ जाते हैं, तेल समाप्त होने पर बुझ जाते हैं पर जो स्वतः प्रकाशित रत्न होते हैं, उनके बुझने का कोई खतरा नहीं । समग्र उपद्रवों के बावजूद वे प्रकाश देते रहते हैं । यह प्रभु-नाममय मणिदीप हमें अखण्ड प्रकाश देता है । यह अहं का जप भी एक प्रकार का मणिदीप ही है । अब हम यह चिन्तन करेंगे कि इस अहं शब्द की निष्पत्ति कैसे हुई तथा वस्तुतः यह शक्ति क्या है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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