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व्यक्तित्व-परिमल
साध्वी हो, तो ऐसी
महोपाध्याय चन्द्रप्रभसागर
विदूषी प्रवर्तिनी श्रीसज्जनधीजी का अभिनन्दन-कार्यक्रम जानकर प्रसन्नता हुई । इस अभिनन्दन से मेरे मन की साध पूरी हुई है। यह अभिनन्दन योग्य व्यक्तित्व के ज्योतिर्मय महादीप से उन दीयों को संस्पर्शित करने का प्रयत्न है, जो बुझे हैं, किन्तु जलने के प्रति आस्था रखते हैं।
मैं कई बार सोचता हैं कि हमारे देश में सुयोग्य पुरुषों के, साधुओं के, आचार्यों के, अभिनन्दन समारोह तो हर महीने आयोजित किये जाते हैं, किन्तु सुयोग्य महिलाओं के, साध्वियों के, प्रवर्तिनियों के भी अभिनन्दन-समारोह हों, तो अच्छा रहे । मेरा मानना है कि नारी अथवा साध्वी का सम्मान वास्तव में उस महनीयता का सम्मान है, जिसके कारण मनुष्य और धर्म अपना अस्तित्व पाते हैं और जिनके बलबूते पर संसार में अपना अस्तित्व बनाये रखते हैं ।
हमारा देश और हमारी संस्कृति पुरुष प्रधान है । इस नीति ने न केवल आम नारी को, अपितु साध्वी को भी दमित किया है। मेरे मन में नारी-दमन के प्रति आदर-भाव नहीं है।
जिन लोगों ने नारी को पतितकारी बतलाया है, उन्होंने वात्सल्य, करुणा जैसे आदर्श गुणों को वहन करने वाले व्यक्तित्व का अपमान किया है । नारी किसी को पतित नहीं करती, वरन् पुरुष स्वयँ पतित होता है। उसे निमित्त-दोष कोई भले ही दे दें, पर नारी का व्यक्तित्व तमसावृत नहीं है। वह तो सद्गुणों की दीपशिखा है।
नारी का सौन्दर्य केवल उसके शरीर में ही नहीं, किन्तु उसकी नैसर्गिक चित्तवृत्तियों में है। उसके सहज भाव उसके शरीर से भी अधिक कोमल और सुकुमार है। उसके कण्ठ से भी अधिक मधुर उसका स्निग्ध व्यवहार है । वह करुणा की प्रतिमूर्ति, सेवा की अनुरक्ति, सहिण्णुता की सजीव प्रतिकृति तथा ममता की जीती जागती आकृति है । वह शक्ति है, जिसकी कृपा पर मानवता का भव्य प्रासाद प्रतिष्ठित है । नारी अपने ही बलबूते पर मातृत्व के महिमा मण्डित सर्वोच्च सिंहासन पर अभिषिक्त एवं विराजमान है।
वह स्वर्ग से भी अधिक गरीयसी एवं महीयसी इसलिए नहीं मानी गयी है कि नर-मात्र की जननी तथा नररत्न प्रसविनी है, अपितु नारी में निहित सहज' उदात्त गुणों को त्यागकर मानव-समाज की कल्पना करना नितान्त असम्भव है । उन समस्त महनीय गुणों के अभाव में जो समाज बनेगा। उसे समाज शब्द से अभिहित करना उस शब्द के साथ बड़ा भारी अन्याय होगा। वस्तुतः उसे असुरसमूह या पशुओं का झुण्ड कहा जा सकता है।
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