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________________ खण्ड १ | व्यक्तित्व-परिमल : संस्मरण १३३ आपश्री ने अपने अद्भुत ज्ञान एवं सरलता, सहजता, सहिष्णुता, सौम्यता, नम्रता, विनय इत्यादि गुणों से अल्प समय में ही सभी को प्रभावित कर दिया। सेवा एवं समर्पण भाव तो आपके जीवन में कूट-कूट कर भरे हुए हैं, अत्यधिक विद्वत्ता होने के पश्चात भी अहं तो आपसे हमेशा कोसों दूर भागता है। विद्वत्ता अहंता को जन्म देती है, इस कहावत को आपने असत्य सिद्ध कर दिया। जो भी आपके सम्पर्क में एक बार आ गया वह आपश्री की विद्वत्ता एवं सरलता से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सका, प्रथम दर्शन ही सबकी श्रद्धा का केन्द्र बन जाता है। जब आपश्री का गढ़ सिवाणा में पदार्पण हुआ, प्रथम दर्शन से ही मन प्रभावित हए बिना नहीं रह सका। अनिमेष दृष्टि से सौम्य आकृति को देखती ही रह गयी। आप जैसी दिव्य विभूति एवं समतामूर्ति के दर्शन पाकर हृदय गद्गद् हो उठा। आपश्री के चरणों में प्रवजित होने का संकल्प कर लिया। दृढ़ संकल्प को साकार रूप देकर आपश्री ने मुझे अनुग्रहीत किया। मैं आपश्री के उपकार से कभी उऋण नहीं हो सकती हूँ। वस्तुतः आपश्री में एक ऐसी संजीवनी शक्ति है, प्रण व स्वत्व का बल है । वास्तव में ऐसे ही व्यक्ति समाज, संघ एवं राष्ट्र के प्राण हो सकते हैं उनमें एक प्राणवान सज्जनश्रीजी साधिका भी हैं। आप भौतिक कीति से तो क्या यशःकीर्ति के व्यामोह से भी कोसों दूर रही हैं। और वस्तुतः जैसा कि मैंने उन्हें पाया है, आप समुद्र से जल ग्रहण कर पृथ्वी पर बरसने वाले बादल के अदृश्य नहीं हैं । आपको लेना तो किसी से नहीं है केवल देना ही देना आता है। देना भी कैसा ? ओढर दानी अर्थात् जो चाहे, जितना चाहे, जब चाहे, ले ले । लेने वाले योग्य हों उसका पात्र सीधा हो उनका ज्ञान रूपी महामेघ तो प्रति पल अनवरत् बरसता ही रहता है। उनके ज्ञान की महिमा का तो मैं क्या वर्णन करूं? आपश्री का सम्पूर्ण समय पठन-पाठन-अध्ययन अध्यापन में ही व्यतीत होता है, प्रतिपल, प्रतिक्षण, प्रतिघड़ी ध्यान स्वाध्याय एवं आत्म-चिन्तन में ही तल्लीन रहती हैं। जिन्दगी के हर क्षण को आपने खेल की तरह खेला। सुख-दुःख में सदैव मुस्कराते रहे, ऐसी है महान अनन्त गुण भण्डार मेरी गुरुवर्या । आपश्री के चरणों में पुनः-पुनः शत-शत अनन्तशः भावेन कर बद्ध नतमस्तकेन वन्दन । नाम सज्जनश्री काम सज्जनता है कलिमल दूर विवर्जित है । सज्जन गुरु चरणों में नमन जिनका जीवन गुणों से पूरित है। 0 आर्या शीलगुणाश्री जी० म० (सुशिष्या पू० श्री सज्जनश्रीजी म० सा०) महापुरुषों के जीवन के क्रिया-कलापों का महत्व उसके व्यक्तित्व पर निर्भर करता है। समाज तथा धर्म की व्यवस्थाओं की सीमाओं से रहकर व्यक्तित्व का सर्वतोन्मुखी विकास जो कि सर्वजनमान्य हो कोई ही कर पाता है। जिन्होंने अपनी महानता, दिव्यता और भव्यता से जन-जन के अन्तर्मानस को अभिनव आलोक से आलोकित किया है । जो समाज की विकृति को नष्ट कर उसे संस्कृति की ओर बढ़ने के लिए उत्प्रेरित करते रहे हैं। उनके विचार आचार में अभिनव क्रान्ति का प्राण संचार करते रहे हैं । उनका अध्यवसाय अत्यन्त तीव्र होता है। जिससे दुर्गम पथ भी सुगम बन जाता है । पथ के शूल भी For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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