________________ 124 खण्ड 1 | जीवन ज्योति की और वितरित की / वे भक्त श्रावक गायक थे। दोनों ही भक्त श्रावकों का मैत्री सम्बन्ध अनुकरणीय है। यह एक शुभ संयोग है कि श्रीगुलाबचन्दजी लूणिया के पौत्र पुखराज और श्रीहीरालालजी आंचलिया की पौत्री रत्ना का वैवाहिक सम्बन्ध हुआ / मित्रता की अविरल धारा तीसरी पीढ़ी में आकर भी अबाधगति से प्रवहमान है।" उन दिनों धार्मिक शिक्षा प्रायः मौखिक ही हुआ करती थीं। धर्मज्ञान की जो पुस्तकें थी उनमें भी अशुद्धियाँ बहुत होती थीं। बाबासा को यह कमी बहुत अवरती थी, वे शुद्ध भाषा की पुस्तकें प्रकाशित कर उनका प्रचार करने को लालायित रहते थे। क्रमशः उन्होंने प्रकाशन कार्य प्रारम्भ कर दिया और इसी सिलसिले में उनका परिचय जयपुर निवासी सेठ श्रीगुलाबचन्दजी लूणिया से हुआ। जैन धर्म, जैन तत्वज्ञान, जैन सिद्धान्त, आचार-व्यवहार, सूत्र-आगम आदि का आपको विशद् ज्ञान था। कभी आंचलिया जी जयपुर आते तो कभी आप गंगाशहर चले जाते / दोनों मित्रों में धर्म-चर्चा होती तो पुस्तकों का प्रकाशन भी होता रहता / सेठ श्रीगुलाबचन्दजी लूणिया की निम्नांकित पुस्तकों के प्रकाशक सेठ श्रीहीरालाल जी आंचलिया थे :1. नव पदार्थ निर्णय शिशु हित शिक्षा 2. श्रावक धर्म विचार श्रावक आराधना 3. प्रश्नोत्तर तत्व बोध सुगुणावली 4. भिक्षु यश रसायन दोनों मित्र अलग-अलग शहरों के निवासी थे, दोनों परिवार भिन्न थे किन्तु दोनों को वृत्ति एक हो थी, अतः उनका सम्बन्ध मित्रता के रूप में आजीवन बना रहा और उन धार्मिक संस्कारों की छाप परिवार के सदस्यों पर पड़ती चली गयी / लूणिया परिवार में महाराज साहब श्रीसज्जनश्रीजी ने ज्ञान और वैराग्य की ज्योति जगायी तो आंचलिया परिवार में श्री हीरालालजी के सुपुत्र श्रीसुमतिचन्दजी तथा पुत्रवधु श्रीमती सुदर्शनाजी ने एक साथ (सजोडे) तेरापंथ धर्मसंघ में जैन भागवती दीक्षा ग्रहण कर संयम और तप के कीर्तिमान स्थापित किये / दूसरे पुत्र मोहनलालजी (उन्होंने) ने भी अपने भरे-पुरे परिवार को छोड़कर अभी हाल ही में दीक्षा ग्रहण कर ली है / इस प्रकार ज्ञान का आलोक दोनों ही परिवारों में पूरी प्रखरता से फैला है। - प्रवर्तिनीधीजी का अभिनन्दन मानव मूल्यों का अभिनन्दन है, उस ज्ञान-ज्योति और संयमसाधना का अभिनन्दन है / इस मंगलमय अवसर पर मैं हृदय की समस्त शुभभावनाओं के साथ आपश्री के चरणों में शतशः अभिवन्दन करती हूँ तथा कामना करती हूं कि आपका वात्सल्यपूर्ण वरदहस्त सदैव हमारे सिर पर बना रहे / आप चिरायु हों, संयम और तप की साधना करती हुई जैन-जगत एवं प्राणिमात्र को सही दिशा प्रदान करती रहें / 00 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org