________________ खण्ड 1 : व्यक्तित्व-परिमल : संस्मरण 123 कठोर हैं, किन्तु ममत्व और स्नेह की मृदुता भी इतनी है कि आपका अनुशासन सबको सहज ही स्वीकार्य हो जाता है। महाराज श्री के सान्निध्य का लाभ मुझे प्रायः मिलता रहता है / ज्ञान-विज्ञान स्वस्थ मनोरंजन रोचक वार्ता, आधुनिक प्रगति, राजनैतिक और आर्थिक परिदृश्य आदि सभी विषयों पर आप निबांध चर्चा कर सकती हैं। पुरानी बातें हो, दर्शन की ग्रन्थियाँ हों या फिर अवसणिणी उत्सर्पिणी काल-गणना की उलझी पहेलियाँ हों, आप इतने सरल एवं रोचक ढंग से समझाती हैं कि बालकों तक की समझ में आ जाता है / उनसे किसी भी विषय का कोई भी प्रश्न किया जाये तत्काल समाधान मिल जाता है। प्रवतिनी श्रीजी ने मुझे बताया कि वे लगभग 5000 पुस्तकें विभिन्न विषयों की पढ़ चुकी हैं। पुस्तकें पढ़ने, गीतिकायें गाने तथा धार्मिक कार्यों में पूरी लगन के साथ भाग लेने के गुण आपको अपने पिताश्री से विरासत में मिले हैं। . __आपकी सास-मां भी सुदृढ़ धार्मिक विचारों की थी, उनको भी आप पुस्तकें पढ़ कर सुनाया करती थों। अपनी दिनचर्या के विषय में आपने बताया कि आप एक ही नींद सोती हैं। तथा प्रातः जल्दी उठ जाती हैं / गहरी नींद नहीं लेती / अहर्निश ज्ञान-ध्यान को अराधना करती रहती हैं। लुणिया परिवार धन्य है जिसमें आप जैसी पुनीत आत्मा ने जन्म लिया। मेरे लिए भी अत्यन्त गौरव की बात है कि मुझे उसी भाग्यशाली परिवार की बहू होने का सौभाग्य मिला / आर्यारत्न हमारी संसार पक्ष में भुआ-सा हैं / मैं बाबा-सा श्रीगुलाबचन्दजी-सा० के दर्शन नहीं कर पायी किन्तु आपके व्यक्तित्व में उनकी छवि के दर्शन कर स्वतः ही आत्मगौरव होने लगता है / मैं सोचती हूँ लूणिया परिवार में मेरे प्रवेश की भूमिका सम्भवतः समय ने बहुत पहले ही बांध दी थी। महाराज साहब सज्जनश्रीजी के लूणिया परिवार का परिचय मुझे अपनी किशोरावस्था में ही हो गया था। मेरे दादाजी श्रीहीरालालजी आँचलिया और मेरे दादा-श्वसुरजी श्रीगुलाबचन्दजी सा० की बातें मेरे पिताश्री प्रायः परिवार में किया करते थे और मैं दत्तचित्त हो उन्हें सुना करती थी। दोनों परिवारों के बीच यह मैत्री मेरे बाबा-सा हीरालाल जी आंचलिया और सेठ श्रीगुलाब चन्दजी लूणिया के बीच बहुत पहले ही हो गयी थी। श्रीमान लूणिया जी जैन तत्वों के जानकार. लेखक, कवि और ग्रन्थकार थे तो श्रीमान आंचलियाजी तत्वों में गहरी रुचि रखने वाले, ग्रन्थों को प्रकाशित कर उनको घर-घर में पहुँचाने वाले धर्मानुरागी श्रावक थे। दोनों भक्त श्रावकों की वह मैत्री अनेक दशकों तक चलती रही। वे ही धार्मिक स्नेह-सम्बन्ध प्रगाढ़ मैत्री में बदल गये और क्रमशः तीसरी पीढ़ी में आकर पारिवारिक सम्बन्ध बन गये। इस मैत्री सम्बन्ध के बारे में तेरापंथ धर्म संघ के युवाचार्य श्री महाप्रज्ञ जी ने अपने विचार यों प्रकट किये हैं : ___ हीरालालजी प्रथम श्रावक हुए हैं जिन्होंने धार्मिक ग्रन्थों का शुद्धिकरण करवाया, उन्हें छपवाया और धर्म चेतना हेतु निःशुल्क वितरण करवाया / इसी प्रकार तेरापंथ सम्प्रदाय में सेठ श्री गुलाब चन्दजी लूणिया प्रथम श्रावक थे जिन्होंने अनेक स्तवन, गीतिकाएँ, भजन, स्तुति एवं तात्विक ढालें स्वयं लिखीं और उन्हें स्वर-बद्ध, तालबद्ध कर स्वयं ही अपने सुमधुर कंठ से गायीं तथा अनेक पुस्तकें प्रकाशित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org