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________________ 122 खण्ड 1 | जीवन ज्योति एवं मातुश्री महताब बाई के आँगन में पुनीत आत्मा का जन्म हुआ। पिता अत्यन्त ज्ञानवान, धर्मनिष्ठ, तत्वज्ञ, दार्शनिक एवं समाज के प्रतिष्ठित व्यक्ति थे तो माता भी अत्यन्त सरल-सहज, पति की अनुगामिनी थी। दोनों ही बारह व्रतधारी श्रावक-श्राविका थे। माता-पिता की छाया में पुत्री को लाड़-प्यार के साथ-साथ धार्मिक संस्कार भी स्वतः ही मिलने लगे। जीवन-निर्माण में नियमित शिक्षा पिताश्री से मिलती थी। पिताश्री आपको पुत्री न मानकर पुत्र ही मानते थे और अपनी धार्मिक गतिविधियों में सदा साथ रखते थे। इस प्रकार धर्म के प्रति निष्ठा का बीज वपन महराजश्री के हृदय में बाल्यकाल से ही हो गया था। साध्वियों के व्याख्यान सुनने तथा उपाश्रय में जाकर नियमित रूप से सामायिक आदि करने की ललक उनमें निरन्तर बनी रहती थी। यहाँ तक कि शाला में पढ़ते-पढ़ते ज्यों ही थोड़ा अवकाश मिलता, वे दौड़कर पास वाले धर्मस्थान में चली जातीं और साधु-साध्वियों का दर्शन लाभ कर लौट आतीं। इधर धार्मिक संस्कार और तत्वों की जानकारी बढ़ती गयो तो उधर सहज ही आपका मन विराग की की ओर झकने लगा। माता-पिता के लिए यह एक चिन्ता का विषय था। एक प्रतिष्ठित एवं सम्पन्न परिवार की बेटी ऐश्वर्य को ठुकराने की बात सोचे, यह उन्हें उचित नहीं लगा, अतः उन्होंने छोटी उम्र (12 वर्ष) में ही आपका विवाह श्रीमान कल्याणमलजी गोलेछा के साथ कर दिया। किन्तु, उस पारिवारिक जीवन में आपका मन कहाँ रमने वाला था? जिसे आत्मलक्षी बनना हो उसे सांसारिक सुखों के प्रति क्या आकर्षण हो सकता है ? वैराग्य हो जिसकी नियति हो उसे ऐश्वर्य के बन्धन कब तक बाँध कर रख सकते हैं ? विदुषीवर्या ने तो छोटी सी अवस्था में ही अपना लक्ष्य निर्धारित कर लिया था, अतः घर, परिवार, संसार के सारे वैभव को छोड़कर आपने जैन श्वेताम्बर खरतरगच्छ संघ में जैन भगवती दीक्षा ग्रहण कर ली और गुरुवर्या ज्ञानश्री जी के सान्निध्य में अपनी सयमसाधना प्रारम्भ कर दी। महाराज साहब ने अपने 48 वर्षों के संयमी जीवन में कठोर साधना, उत्कृष्ट तपश्चर्या, ज्ञान और दर्शन की आराधना, सूत्रों और आगम का पठन-पाठन एवं ग्रन्थ-प्रणयन आदि अनेक महान कार्य सम्पन्न किये हैं / आपकी विलक्षण प्रतिभा एवं अद्भुत स्मरण-शक्ति ऐसी थी कि प्रारम्भ के दिनों में भक्तामर स्तोत्र को थोड़े ही समय में पूर्ण कण्ठस्थ कर आपने अपनी गुरुवर्या को सुना दिया था और उनके हृदय में परम शिष्या के रूप में स्थान पा लिया था। संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी, अंग्रेजी, राजस्थानी, गुजराती आदि अनेक भाषाओं पर महाराज साहब का समान अधिकार है। आगम, द्रव्यानुयोग आदि गहन तात्विक विषयों की आप पुर्ण ज्ञाता हैं / तप, साधना एवं दर्शन के गूढ़ गम्भीर विषयों में रमण करती हुई आप मधुर सरस एवं काव्यमय व्यक्तित्व की धनी हैं। भावमयी, ममतामयी महाराज साहब का करुणास्रोत और भक्ति-स्रोत सरस कविताओं के रूप में प्रवाहित होता रहता है। ___ आपने अनेक भावपूर्ण गीतिकाओं का सृजन किया है / जब स्वयं गाती हैं तो भक्ति की अजस्त्र धारा स्वतः ही फूट पड़ती है। श्रोताओं का मन आत्मविभोर हो भक्ति और संगीत के एक अनोखे संसार में रमण करने लगता है। परम विदुषी, आगमज्ञा तथा धर्मसंघ के शाषस्थ पद पर आसीन गुरुवर्या की सरलता और सहजता देखते ही बनती है। मैंने आपके हृदय की निर्मलता, वाणी की स्पष्टता और व्यवहार की मृदुता के निकट से दर्शन किये हैं। अपनी अनुवर्तिनी शिष्याओं, थावक-श्राविकाओं तथा अन्य लोगों के प्रति आपका वात्सल्यपूर्ण एवं आत्मीय व्यवहार स्वतः ही एक आकर्षण उत्पन्न करता है / अनुशासन में आप For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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