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________________ जीवन ज्योति: साध्वी शशिप्रभाश्रीजी र्मास काल में ही साधनिका सहित संपूर्ण कौमुदी कण्ठस्थ करवा दी । श्री मणिप्रभसागरजी म० की ग्रहणशक्ति भी प्रबल है, कि इन्होंने इतनी जल्दी कौमुदी को कण्ठस्थ कर लिया । ६४ निर्वाण शताब्दी समारोह चातुर्मास के प्रारम्भ से ही शुरू हो गया था । हम लोग सब व पूज्य श्री चन्दनाजी म०, यशाजी, साधनाजी आदि निर्वाण मन्दिर से गाते हुए, धुन लगाते हुए प्रभात फेरी के रूप में जल मन्दिर जाते थे । आशा यह थी कि भगवान के २५००वें निर्वाण शताब्दी समारोह के अवसर पर बाहर से लगभग एक लाख स्त्री-पुरुष आयेंगे । उसी के अनुसार सुव्यवस्थित महावीर नगर बसाया गया । कार्यक्रम संपादन हेतु जलमन्दिर के एक ओर विशाल मंडल भी बनाया गया । किन्तु उन्हीं दिनों बिहार में श्री जयप्रकाशनारायण का आन्दोलन चल रहा था, वातावरण अशांत बना हुआ था । यद्यपि श्रद्ध ेय अनुयोगाचार्यजी विहार शरीफ की इतनी लम्बी यात्रा करके जे० पी० से स्वयं मिले और उनसे संपर्ण कार्तिक मास में आन्दोलन बन्द रखने का वचन ले लिया था, तथा इस प्रकार के समाचार रेडियो द्वारा प्रसारित भी करवा दिये । पर जितनी आशा थी बाहर से उतने लोग नहीं आये । कार्यक्रम १० दिन पहले ही शुरू हो चुका था । विद्वान लोग आ गये थे । विद्वद् गोष्ठियाँ और व्याख्यान होने लगे । वक्ता अपने व्याख्यानों में अहिंसा, अपरिग्रह, अनेकांत, आत्मवाद आदि का विवेचन करते । आस्तिक्य आदि की व्याख्या करते और प्राणीमात्र के प्रति मैत्रीभाव रखने की प्रेरणा देते । भक्ति आस्था और श्रद्धा का वातावरण था । इसी अवसर पर निर्वाण मन्दिर का जीर्णोद्धार भी हुआ । जैसलमेरी पोत पाषाण की दो अत्यन्त प्राचीन प्रतिमाएँ, जो जैसलमेर से ही लाई गई थीं, उनको भी शांति स्नात्र महापूजन सह अष्टान्हिका महोत्सव पूर्वक बड़े धूम-धाम से मिगसिर कृष्णा में शुभ दिन और शुभ मुहुर्त मन्दिर के मूल गभारे में दोनों साइड में विराजमान की गई । स्थानकवासी राष्ट्रसंत कवि अमरचन्दजी म० आर्या महासती सुमतिकुंवरजी, चन्दनाजी तथा तेरापंथी मुनि रूपचन्दजी भी पूजादि में पधारते और अपनी मधुर वाणी में पूजा-भजन आदि गाते थे । इससे हमने वह अनुमान लगाया कि शास्त्रसम्मत प्रभु प्रतिमा को मानने में उन्हें कोई ऐतराज न था और न है । अनेकान्तवादी जैन धर्म में अपार सहिष्णुता और सद्भावना का स्थान है । सभी समारोह बड़े धर्मोत्साह के साथ सम्पन्न हुए । हमारा यह चातुर्मास अविस्मरणीय रहा । चातुर्मास के उपरान्त अनुयोगाचार्यजी को शिखरजी की ओर पधारना था । हमने राजस्थान की ओर कदम बढ़ाए । मार्ग में गया, बौद्ध गया आदि तीर्थ आये । गया में दिगम्बर जैनियों के घर काफी हैं, श्वेताम्बर जैनियों का एक भी घर नहीं है। ग्राम में दिगम्बर मन्दिर भी हैं । बोद्ध गया में भी जिस पिप्पल के वृक्ष के नीचे तथागत को वोध प्राप्त हुआ था, वह बोधिवृक्ष के नाम से प्रसिद्ध है । यहाँ विशाल बौद्ध मन्दिर है । चीन, जापान, बर्मा, लंका, थाइलैण्ड आदि देशों द्वारा बनवाये हुए बौद्ध मन्दिर भी हैं । बौद्ध विहार भी हैं । इनमें भिक्ष ु भिक्षुणियाँ रहते हैं । हमने इन सब को देखा तो भारत के प्रति गौरव का भाव मन में भर उठा। भारत के एक महापुरुष को विदेशों में कितना सम्मान मिला । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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