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________________ १२२ जैन आगमिक व्याख्या साहित्य में नारी की स्थिति का मूल्यांकन प्रो० सागरमल जैन (६) प्रजनन क्षमता से युक्त होना । (७) स्त्रियोचित्त कार्य करना । (८) स्त्री रूप में भोगी जाने में समर्थ होना । स्त्रियोचित्त गुण होना और ( 2 ) (१०) स्त्री सम्बन्धी वासना का होना । जैनाचार्यों की दृष्टि में नारी चरित्र का विकृत पक्ष जैनाचार्यों ने नारी चरित्र का गम्भीर विश्लेषण किया । नारी स्वभाव का चित्रण करते हुए तन्दुल वैचारिक प्रकरण में नारी की स्वभावगत निम्न ६४ विशेषतायें वर्णित हैं- घर, नारी स्वभाव से विषम, मधुर वचन की वल्लरी, कपट प्रेम रूपी पर्वत, सहस्रों अपराधों का शोक की उद्गमस्थली, पुरुष के बल के विनाश का कारण, पुरुषों की वधस्थली अर्थात् उनकी हत्या का कारण, लज्जा - नाशिका, अशिष्टता का पुन्ज, कपट का घर, शत्रुता की खान, शोक की ढेर, मर्यादा की नाशिका, कामराग की आश्रय स्थली, दुराचरणों का आवास, सम्मोह की जननी, ज्ञान का स्खलन करने वाली, शील को विचलित करने वाली, धर्मयाग में बाधा रूप, मोक्षपथ साधकों की शत्रु, ब्रह्मचर्यादि आचार मार्ग का अनुसरण करने वालों के लिए दूषण रूप, कामी की वाटिका, मोक्षपथ की अर्गला, दरिद्रता का घर, विषधर सर्प की भाँति कुपित होने वाली, मदमत्त हाथी की भांति कामविह्वला, व्याघ्री की भांति दुष्ट हृदय वाली, ढंके हुए कूप की भाँति अप्रकाशित हृदय वाली, मायावी की भाँति मधुर वचन बोलकर स्वपाश में आवद्ध करने वाली, आचार्य की वाणी के समान अनेक पुरुषों द्वारा एक साथ ग्राह्य, शुष्ककण्डे की अग्नि की भांति पुरुषों के अन्तःकरण में ज्वाला प्रज्वलित करने वाली विषम पर्वत मार्ग की भांति असमतल अन्तःकरण वाली, अन्तर्दृषित घाव की भाँति दुर्गन्धित हृदय वाली, कृष्ण सर्प की तरह अविश्वसनीय, संहार (भैरव) के समान मायावी, सन्ध्या की लालिमा की भांति क्षणिक प्र ेम वाली, समुद्र की लहरों की भांति चंचल स्वभाव वाली, मछलियों की भांति दुष्परिवर्तनीय स्वभाव वाली, बन्दरों के समान चपल स्वभाव वाली, मृत्यु की भाँति निर्विरोष, काल के समान दयाहीन, वरुण के समान पाशयुक्त अर्थात् पुरुषों को कामपाश में बांधने वाली, जल के समान अधोगामिनी, कृपण के समान रिक्त हस्त वाली, नरक के समान दारुणत्रासदायका, गर्दभ के सदृश दुष्टाचार वाली, कुलक्षणयुक्त घोड़े के समान लज्जारहित व्यवहार वाली, बाल स्वभाव के समान चंचल अनुराग वाली. अन्धकारवत् दुष्प्रविश्य, विष बेल की भाँति संसर्ग वर्जित, भयंकर मकर आदि से युक्त वापी के समान दुष्प्रवेश्य, साधुजनों की प्रशंसा के अयोग्य, विष वृक्ष के फल की तरह प्रारम्भ में मधुर किन्तु दारुण अन्त वाली, खाली मुट्ठी से जिस प्रकार बालकों को लुभाया जाता है उसी प्रकार पुरुषों को लुभाने वाली, जिस प्रकार एक पक्षी के द्वारा मांस खण्ड ग्रहण करने पर अन्य पक्षी उसे विविध कष्ट देते हैं उसी प्रकार दारुण कष्ट स्त्री को ग्रहण करने पर पुरुषों को होते हैं, प्रदीप्त तणराशि की भाँति ज्वलन स्वभाव को न छोड़ने वाली, घोर पाप के समान दुर्लघ्य, कूट कार्षापण की भाँति अकालचारिणी, तीव्र १. णामं ठवणादविए खेत्त े काले य पजणणकम्मे । भोगे गुणेय भावे दस ए ए इत्थीणिक्खेवो ॥ २० तदुल वैचारिक सावचूरि सूत्र १९. ( देवचन्द लालभाई पुस्तकोद्धार, ग्रन्थमाला) | Jain Education International - सूत्रकृतांग नियुक्ति गाथा ५४ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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