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________________ खण्ड ४ : धर्म, दर्शन एवं अध्यात्म-चिन्तन ११३ ग्रन्थि ठीक से कार्य नहीं करती। एड्रीनल मैड्यूला ग्रन्थि ऐड्रीनेलिन हारमोन को रुधिर धारा में मिलाती है । स्वचालित तन्त्रिका तन्त्र हृदयगति, रक्तप्रवाह, रक्तचाप तथा नाड़ी की गति में वृद्धि कर देता है, पाचनक्रिया में विघटन डालता है, रुधिर के दबाव को बढ़ाता है। इस प्रकार क्रोध से पेप्टिक अल्सर, हृदयरोग, उच्च रक्तचाप आदि अनेक रोग होते हैं । क्रोधी व्यक्ति का परिवार में आतंक बना रहता है, भयजनक वातावरण रहता है उसके प्रति स्नेह और प्रेम का ह्रास हो जाता है । परिवार में अनुशासन आवश्यक है-आतंक नहीं । समाज में क्रोधी व्यक्ति सम्मान का पात्र नहीं बन पाता । ऐसा व्यक्ति क्रोध करके अपने ही किए कार्यों पर पानी फेर देता है । अतः क्रोध शरीर, परिवार और समाज की दृष्टि से उचित नहीं--यह सत्य है किन्तु विशेष रूप से आत्मिक दृष्टि से वह अत्यन्त हानि को प्राप्त होता है। हेमचन्द्राचार्य ने कहा है1-क्रोध शरीर और मन को संताप देता है, क्रोध वैर का कारण है, क्रोध दर्गति की पगडण्डी है और क्रोध परम सुख को रोकने के लिए अर्गला समान है । क्रोध व्यक्ति की शान्ति को भंग कर देता है, हृदय व्याकुल कर देता है, मन क्षुब्ध बना देता है, और आत्मा में कर्म कालुष्य की वृद्धि कर जन्म-मरण का कारण बनता है । क्रोध के प्रसंग में क्रोध को न आने देने के लिए कुछ चिन्तन सूत्र उपयोगी हैं-- (१) क्रोध द्वारा होने वाली हानियों पर दृष्टि (२) स्वयं के दोष देखने का प्रयास (३) दूसरे के दृष्टिकोण को समझने का प्रयत्न (४) स्थान परिवर्तन (५) चिन्तन शैली में परिवर्तन (६) अल्प अपेक्षाएँ (७) अहंकार को प्रबल होने से रोकना यदि व्यक्ति प्रयास करे तो वह अपनी वृत्तियों पर नियन्त्रण कर सकता है । ध्यान रखें क्रोध प्राणियों के अन्तरंग एवं बाह्य को अनेक प्रकार से जलाता है अतः वह एक अपूर्व अग्नि है। अग्नि मात्र बाह्य को जलाती है किन्तु यह अन्तरंग को भी जलाता है। बुद्धिमानों की भी चक्षु सम्बन्धी और मानसिक दोनों ही दृष्टियों का एक साथ उपघात करने से क्रोध कोई एक अपूर्व अन्धकार है, क्योंकि अन्धकार तो केवल बाह्य दृष्टि का ही उपघातक होता है। जन्म-जन्म में निर्लज्ज होकर अनिष्ट करने वाला होने से क्रोध कोई एक अपूर्व ग्रह या भूत है; क्योंकि भूत तो एक ही जन्म में अनिष्ट करता है । उस क्रोध का विनाश करने के लिए क्षमादेवी की आराधना करनी चाहिए। 卐म १. योगशास्त्र, हेमचन्द्राचार्य, प्रकाश ४, गा० ६ २. अनगार धर्मामृत, अ० ६, श्लोक ४ खण्ड ४/१५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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