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________________ खण्ड ४ : धर्म, दर्शन एवं अध्यात्म-चिन्तन परित्याग कर दिया है। उनका कहना है कि स्मृति मति पर आधारित होने पर भी इसकी कुछ अपनी विशेषता है जिससे स्मरण सदा बना रहता है। __स्मृति सदैव नहीं रहती इसके उदाहरणस्वरूप कहा जा सकता है कि किसी पूर्व देखे व्यक्ति को कुछ समय पश्चात् पुनः देखते हैं तो कभी-कभी याद नहीं कर पाते । ठीक है यह । किन्तु, इसका कारण यह नहीं कि स्मति आपको धोखा दे गयी। इसका वास्तविक कारण यह था कि उस व्यक्ति के प्रति आपकी धारणा में कमी थी। आपने उसे सरसरी निगाह से देखा था । मन में कोई स्थायी रूप नहीं दिया गया था। धारणा पक्की नहीं होने के कारण आप उसे भूल गये थे। मनोविज्ञान में ही नहीं, योग दर्शन में भी धारणा (जिसका दूसरा नाम है भावना) का बहुत बड़ा महत्व है। मनोवैज्ञानिक चिकित्सा का जो क्रम है वह इसी धारणा पर प्रतिष्ठित है। उदाहरणतः जो हरदम महसूस करता है कि मैं बीमार हूँ वह सदैव बीमार रहता है। कारण, यह उसकी धारणा बन जाती है और वह सचमुच ही बीमार हो जाता है। मनोवैज्ञानिक चिकित्सा इस निराशा से आपको मुक्त करने का प्रयत्न करती है ताकि आप स्वस्थ और सबल बन सकें । फिर भी स्मृति अपने आप में पूर्ण नहीं है। आपने गाय देखी थी आपके मस्तिष्क में उसकी स्मृति बन गई। किन्तु बाद में जब भी आप गाय को देखते हैं तो इसमें मात्र स्मृति ही काम नहीं करती। आपने पूर्व में जो गाय देखी थी उसका सादृश्य आप इसमें खोजते हैं। इस सादृश्य अनुसन्धान का नाम है प्रत्यभिज्ञा या संज्ञा । पाश्चात्य देशों में इसे एसिमिलेशन (assimilation), कम्पारिजन (comparison) या कन्सेप्सन (c nception) कहते हैं। प्रत्यभिज्ञा चार प्रकार की होती है। गाय के उदाहरण से इसे स्पष्ट कर रहे हैं। (१) गाय जैसी है अतः गाय है । यह प्रत्यभिज्ञा सादृश्य से हुई। पाश्चात्य वैज्ञानिक इसे एसोसिएशन बाई सिमिलरिटि (association by similarity) कहते हैं। (२) गाय भैस जैसी नहीं है। भैंस के भी गाय की ही भाँति सींग है, पूछ है, वह भी घास खाती है, दूध देती है फिर भी वह गाय नहीं है। अतः गाय का जो यह ज्ञान हुआ वह भैंस के वैसादृश्य से हुआ। इसीलिये पाश्चात्य विज्ञान इसे एसोसिएशन बाई कन्ट्रास्ट (association by contrast) कहता है। (३) निरन्तर देखते-देखते गाय के विषय में आपको जो विशेष ज्ञान हो जाता है उस विशेष ज्ञान को पाश्चात्य दर्शन में कन्सेप्शन (conception) कहा जाता है। इस प्रकार विश्व के अन्य सभी द्रव्यों से गाय का जो विशेषत्व है उसे जानने की प्रक्रिया को जैन परिभाषा में तिर्यक्-सामान्य और पाश्चात्य परिभाषा में स्पेसिज आइडिया (species idea) कहते हैं। (४) इसी प्रकार भिन्न-भिन्न द्रव्यों में जिस ऐक्य की उपलब्धि होती है उस पर आप जो दृष्टि डालते हैं उसे जैन दर्शन में ऊर्ध्वता-सामान्य और पाश्चात्य दर्शन में सब्सट्राटम ( utstratum) या एसी (esse) कहा गया है। इस दृष्टि में गाय को गायत्व के विशेष धर्म से न देखकर जीव धर्म से देखते हैं । इसको और स्पष्ट करने के लिये अलंकारों का उदाहरण लीजिये । हार, बाला, अंगूठी आदि में जब उनके विशेषत्व को न देखकर केवल सुवर्ण को देखते हैं तो वह ऊर्ध्वतासामान्य की दृष्टि से ही देखते हैं। वस्तुतः द्रव्य का इन चार प्रकारों से जो ज्ञान होता है वह प्रत्यभिज्ञा ही है। चिन्ता-चिन्ता को ऊह या तर्क कहा गया है। तर्क का सहज अर्थ है विचार । प्रत्यभिज्ञा या संज्ञा में हम गाय की एक संज्ञा बना लेते हैं जिसे हम गोत्व कहते हैं। फिर गोत्व और गाय में एक अविनाभाव सम्बन्ध भी स्वीकार कर लेते हैं, अर्थात् जहाँ गोत्व है वहाँ गाय है। आज हम जिसे गाय कहते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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