SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 448
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन धर्म में मनोविद्या : गणेश ललवाणी २४ हैं वह इस तर्क या विचार पर ही कहते हैं । कारण हमने गाय की जो संज्ञा प्रस्तुत की थी वह सब इसमें है । पाश्चात्य विज्ञान इसे इन्डक्शन (induction ) कहते हैं । और वे भी जैन दार्शनिकों की भाँति ही इन्डक्शन को आबजरवेशन ( observation ) या भूयोदर्शन का परिणाम मानते हैं । साथ ही जैनाचार्यों की भाँति यह भी मानते हैं कि गाय और गोत्व का जो सम्बन्ध है वह इनवेरियेबल ( invariable) व अनकन्डिशनल (unconditional) है । जैन दर्शन इसे अविनाभाव या अन्यथानुपपत्ति कहता है । अभिनिबोध - तर्कलब्ध विषय की सहायता से अन्य विषय के ज्ञान को अभिनिबोध कहते हैं । इसका दूसरा नाम है अनुमान । अनुमान को पाश्चात्य विज्ञान में डिडक्शन ( deduction) कहते हैं । न्यायशास्त्र में इसका एक प्रचलित उदाहरण है 'पर्वतो वह्निमान धूमात् । पर्वत से धूम या धुआँ निकलते देखकर हम अनुमान करते हैं कि पर्वत पर आग लगी है । यह अनुमान तर्क पर प्रतिष्ठित है। आग एवं धुएँ में जो अविनाभाव सम्बन्ध है वह तर्क से ही प्राप्त हुआ था । जहाँ-जहाँ हमने आग देखी, वहाँ-वहाँ छुआ देखा | अतः यह सोच लेते हैं कि पहाड़ से जब धुँआ निकल रहा है तो अवश्य ही वहाँ आग है । वास्तव में अनुमान तर्कशास्त्र का प्राण है । यह प्रत्यक्षमूलक होने पर भी ज्ञान के आहरण में अपना विशिष्ट स्थान रखता है । कारण, अनुमान के आधार पर ही हम संसार के अधिकतम व्यवहार चला रहे हैं और अनुमान के आधार पर ही तर्कशास्त्र का विशाल भवन खड़ा है । अनुमान कार्य-कारण के सम्बन्ध से ही उद्भूत होता है । अग्नि से धूम की उत्पत्ति होती है । afe के अभाव में धूम उत्पन्न नहीं होता । इस प्रकार कार्य कारणभाव व्याप्ति का अविनाभाव सम्बन्ध कहलाता है । इसका निश्चय तर्क से होता है जैसा कि हम ऊपर कह आए हैं। अविनाभाव निश्चित हो जाने पर कारण को देखते ही कार्य का बोध हो जाता है । यह बोध ही अनुमान है । जिस प्रकार धूम को देखकर ही अदृष्ट अग्नि का अनुमान हम कर लेते हैं इसी प्रकार जब हम किसी शब्द को सुनते ही अनुमान कर लेते हैं कि यह आवाज पशु की है या मनुष्य की । फिर मनुष्य की भी है तो अमुक मनुष्य की, पशु की है तो अमुक पशु की । स्वर से स्वर वाले को पहचान लेना अनुमान का ही फल है । अनुमान के भी दो भेद हैं-- स्वार्थानुमान, परार्थानुमान । आप जब अपनी अनुभूति से यह ज्ञान प्राप्त करते हैं तो वह स्वार्थानुमान होता है । पर वाक्य के प्रयोग द्वारा जब वह अन्य को समझाया जाता है तो उसे परार्थानुमान कहा जाता है। परार्थानुमान का शाब्दिक रूप कैसा होगा इस विषय में न्याय दर्शन ने इन पाँच अवयवों को माना है : १. पर्वत में अग्नि है ( प्रतिज्ञा ) २. क्योंकि वहाँ धूम है ( हेतु) ३. जहाँ-जहाँ धूम है, वहाँ-वहाँ अग्नि है ( व्याप्ति ) ४. पर्वत में धूम है ( उपनय ) ५. अतः पर्वत में अग्नि है ( निगमन ) प्रसंगवश प्रमाण के विषय में यहाँ दो शब्द उपस्थित किए जाते हैं। प्रमाण चार प्रकार के होते हैं । यथा - ( १ ) प्रत्यक्ष, (२) अनुमान, (३) आगम प्रमाण, (४) उपमान प्रमाण । प्रत्यक्ष प्रमाणों की आलोचना मति आदि ज्ञान की आलोचना में हो जाती है, अनुमान का उपरोक्त आलोचना में । आगम प्रमाण का वर्णन श्रुतज्ञान की व्याख्या में करेंगे । उपमान प्रमाण वहाँ है जहाँ प्रसिद्ध पदार्थ के सादृश्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy