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________________ जन धर्म में मनोविद्या : गणेश ललवाणी संयोग नहीं होने के कारण वे हमारे ज्ञान का विषय नहीं बनती। ज्ञान का विषय वही बनता है जिसके साथ हमारे मन का संयोग होता है। 'लक' ने इसे (idea of sensation) और (idea of reflection) कहा था। आज के पाश्चात्य दार्शनिकगण इसे वहिरानुशीलन (extrospection) और अन्तरानुशीलन (introspection) कहते हैं । इन्द्रियों के भेद से मतिज्ञान के भी पाँच भेद हैं। यथा-आँखजनित मतिज्ञान, कानजनित मतिज्ञान, नाकजनित मतिज्ञान, जिह्वाजनित मतिज्ञान और त्वचाजनित मतिज्ञान । मतिज्ञान या उपलब्धि परसेप्शन (perception) हमें जिस प्रकार होती है अर्थात् उसमें जो-जो चित्तवृत्तियाँ काम करती हैं उसका विवरण आज के वैज्ञानिकगण जिस प्रकार दे रहे हैं उसे जैन दार्शनिकों ने हजारों वर्ष पूर्व ही दे दिया था। जैन दर्शन ने उन चित्तवृत्तियों को चार नाम दिये हैं-(१) अवग्रह, (२) ईहा, (३) अवाय, (४) धारणा । दर्शन और अवग्रह में कुछ अधिक अन्तर नहीं है। कारण अवग्रह से भी 'कुछ है' इतनी ही प्रतीति होती है, उसके विषय में सुनिश्चित या सविशेष रूप में कोई ज्ञान नहीं होता । जैसा कि हमने गाय के उदाहरण से स्पष्ट किया था। पाश्चात्य वैज्ञानिक इसे सेन्सेशन (sensation) या प्रिमियम कगनितम (prem um cogniium) कहते हैं । विषय को स्पष्ट करने के लिये इसकी तुलना हम किसी नायक-नायिका के प्रथम दर्शन से कर सकते हैं। प्रथम होता है मात्र दर्शन । फिर यह जानने की इच्छा होती है, 'वह कौन है ?' इस इच्छा का नाम ही है ईहा । पाश्चात्य दर्शन में इसे परसेप्चुअल एटेन्शन (perceptual attention) कहते हैं । वह कौन है यह जानने की व्यग्रता के फलस्वरूप वे जानकारी हासिल करते हैं कि वह अमुक है। बस इसी प्रक्रिया का नाम है 'अवाय' । पाश्चात्य दार्शनिकों की परिभाषा में यह परसेप्चुअल डिटरमिनेशन (perceptual determination) है । अर्थात् वह अमुक का पुत्र है, अमूक की कन्या है आदि आदि । अवाय में मतिज्ञान पूर्णता प्राप्त कर लेता है । पर यह अवाय भी किस काम का यदि वह ज्ञान चित्त में स्थिरता प्राप्त न करे। इतना सब कुछ होने के पश्चात् भी यदि नायकनायिका एक दूसरे को भूल जाएँ तो वह समस्त व्यर्थ है । अतः जिस चित्तवृत्ति के आधार पर यह स्थिरता प्राप्त होती है उसे 'धारणा' कहते हैं। पाश्चात्य दार्शनिकगण इसे परसेप्चुअल रिटेन्शन (perceptual retension) कहते हैं। अवग्रह से धारणा तक मतिज्ञान का प्रथम क्षेत्र है । धारणा में जो वस्तु बैठ जाती है वह स्मृति का विषय बन जाती है । पूर्वानुभूत विषय के स्मरण का नाम है स्मृति । पाश्चात्य विज्ञान इसे रिकलेक्शन (recollection) या रिकग्निशन (reco.n.tion) कहता है । रिकग्निशन या रिकलेक्शन का तात्पर्य है देखी हई वस्तु को मन में लाना और उसकी सहायता से जो वस्तुएँ देखी जाती हैं उन्हें पहचानना । हमने गाय देखी । वह देखना चित्त में स्थिर हो गया। स्थिर होते ही उसकी स्मृति बन गयी। अतः जब हम . गाय को देखते हैं तो उसी स्मृति के आधार पर हम कहते हैं यह गाय है । 'हब्स' 'हिउम' आदि पाश्चात्य दार्शनिकों का यह मत था कि जिसे हम स्मृति कहते हैं वह क्षीयमान मतिज्ञान ही है। परन्तु यह गलत है। कारण, इसमें कुछ ऐसी विशेषता भी है कि जिसके कारण उसे कभी नहीं भूलते एवं देखने मात्र से ही उसकी स्मृति हो आती है। जैसे कि गाय को देखते ही आप दस वर्ष की उमर में भी यही कहेंगे 'यह गाय है' और पचास वर्ष की उमर में भी यही कहेंगे-'यह गाय है' । स्मृति यदि क्षीयमान मति ही होती तो आप उसे भूल जाते। अतः 'हब्स' एवं 'हिउम' के मत का आज के 'रीड' आदि पाश्चात्य दार्शनिकों ने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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