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________________ खण्ड ४ : धर्म, दर्शन एवं अध्यात्म-चिन्तन स्वरूप एक गाय को लीजिए। आपने गाय देखी । दर्शन से आपको इतना ही अनुभव हुआ 'गाय कुछ है' पर वया है इसकी विशेष जानकारी नहीं होती । उसके सींग है, पूछ है, वह घास खाती है, दूध देती है यह सब ज्ञान नहीं होता । ज्ञान तो उपयोग का दूसरा प्रकार है जिसका उदय होता है दर्शन के बाद । और यह किस प्रकार उदय होता है, आगे जाकर इसकी चर्चा करेंगे । शास्त्रों में दर्शन के चार प्रकार बताए गए हैं। चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन, केवलदर्शन । आँखों से देखकर जब यह अनुभव होता है कि 'कुछ है' तो उसे चक्षुदर्शन कहते हैं और जो अनुभव आँख के अतिरिक्त नाक, कान, जीभ और त्वचा से होता है उसे कहते हैं अचक्षुदर्शन । अवधिदर्शन का अर्थ है एक सीमा के मध्य रूपी द्रव्यों का सामान्य-सा अनुभव और केवलदर्शन का विश्व के समस्त पदार्थों का सामान्य अनुभव । उपयोग का दूसरा लक्षण है 'ज्ञान' । ज्ञान के पाँच भेद हैं-मति, श्रु त, अवधि, मनःपर्यव और केवल । इनमें प्रथम दो मति और थ त ज्ञान को जैन दर्शन में परोक्ष एवं शेष तीन को प्रत्यक्ष माना है। अन्य दर्शन मति अर्थात् इन्द्रियलब्ध ज्ञान को ही प्रत्यक्ष मानता है। किन्तु जैनदर्शन ऐसा नहीं मानता। वह कहता है जो ज्ञान आत्मा द्वारा होता है वही ज्ञान प्रत्यक्ष है और जो इन्द्रिय तथा मन के सहारे से उत्पन्न होता है वह परोक्ष है । क्योंकि जो ज्ञान सीधा आत्मा से होता है उसमें भ्रान्ति हो नहीं सकती। कारण वह स्व का ज्ञान है । पर जो ज्ञान अन्य की सहायता से उत्पन्न होता है वह भ्रान्तियुक्त हो सकता है । इस भ्रान्त ज्ञान को ही जैनदर्शन 'मिथ्याज्ञान' कहता है और इसके विपरीत ज्ञान को सम्यक् ज्ञान । मति के मिथ्याज्ञान को कुमति, श्रु त के मिथ्याज्ञान को कुश्र त कहा जाता है। अवधिज्ञान आत्मिक होने पर भी उस समय मिथ्या हो सकता है जब कि वह अवधि की पूर्ण सीमा तक का पूर्ण ज्ञान न होकर आंशिक रूप में उत्पन्न होता है। इस अपूर्ण अवधिज्ञान को विभंगज्ञान कहते हैं। भगवान महावीर के समय के कुछ ऐसे व्यक्तियों का उल्लेख हम शास्त्रों में पाते हैं जिन्हें यह विभंगज्ञान हुआ था और भगवान के समीप जाने पर उनके द्वारा उस भ्रान्त ज्ञान का निरसन किया गया था। दर्शन के बाद सर्वप्रथम जिस ज्ञान का उद्भव होता है वह है मतिज्ञान । यह ज्ञान मन और इन्द्रियों के सहारे से ही उत्पन्न होता है । मतिज्ञान के भी तीन प्रकार हैं-उपलब्धि, भावना, उपयोग । किन्तु, इनकी व्याख्या निष्प्रयोजन है। इनका स्वरूप तो नाम से ही प्रकट है। यथा-उपलब्धि अर्थात ज्ञान का अनुभव, भावना-उस ज्ञान का चिन्तन, उपयोग-वैसी ही परिस्थिति में पुनः उसका प्रयोग। इसी प्रक्रिया का और अधिक स्पष्टीकरण करने के लिए कुछ जैन दार्शनिकों ने मतिज्ञान को पाँच भागों में विभक्त किया है। जैसे-~-मति, स्मृति, संज्ञा, चिन्ता, अभिनिबोध । दर्शन से 'कुछ है' यह बोध होने के पश्चात ही ज्ञान की जो क्रिया प्रारम्भ होती है उसका नाम है उपलब्धि या मति । पाश्चात्य दर्शन में इसे सेन्स इन्ट्यूइसन (sense intuition) या परसेप्शन (perceptic n) कहते हैं। जो मतिज्ञान केवल इन्द्रियों की सहायता से होता है उसे इन्द्रियनिमित्त मतिज्ञान कहते हैं और जो ज्ञान अनिन्द्रिय अर्थात् अर्थात् मन की अपेक्षा रखता है उसे अनिन्द्रिय मतिज्ञान कहते हैं। पर ये दोनों ज्ञान एक ही विषय के दो रूप हैं। आपने आँख से गाय देखी पर जब तक मन उसको ग्रहण नहीं करता तब तक उसका बोध नहीं होता। राह चलते हम हजारों वस्तुएँ देखते हैं पर मन का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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