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________________ खण्ड ३ : इतिहास के उज्ज्वल पृष्ठ ग्रहण करती थीं। ये कारण मुख्य रूप से सामाजिक, पारिवारिक एवं आर्थिक हैं। सामान्यतः नारी अपने पति, पुत्र, भाई या अन्य किसी प्रिय सम्बन्धी की मृत्यु या प्रव्रज्या ग्रहण करने पर स्वयं भी प्रवजित हो जाती थी। कभी-कभी धर्माचार्यों के उपदेश से भी स्त्रियों द्वारा प्रव्रज्या लेने का उल्लेख मिलता है। जैन परम्परा में प्रारम्भ से ही स्त्रियों को समान धार्मिक अधिकार दिये गये और चतविध संघ में साधु के साथ साध्वी तथा श्रावक के साथ श्राविका भी सम्मिलित किये गये। जैन धर्म के दोनों सम्प्रदायों और उनकी शाखाओं में आज भी बड़ी संख्या में साध्वियाँ विद्यमान हैं। इस लेख में श्वेताम्बर सम्प्रदाय की एक प्राचीन और महत्वपूर्ण शाखा-खरतरगच्छ की साध्वी परम्परा पर प्रकाश डाला गया है । विक्रम संवत् की ग्यारहवीं शताब्दी में अपने अभ्युदय से लेकर आज भी यह गच्छ जैन धर्म के लोक-कल्याणकारी सिद्धान्तों का पालन कर विश्व के समक्ष एक उज्ज्वल आदर्श उपस्थित कर रहा है। खरतरगच्छ में अनेक प्रभावक आचार्य, उपाध्याय, विद्वान साधु एवं साध्वियाँ तथा बड़ी संख्या में तन्त्र-मन्त्र के विशेषज्ञ, ज्योतिर्विद, वैद्यक शास्त्र के ज्ञाता यतिजन हो चुके हैं, जिन्होंने न केवल समाजोत्थान बल्कि संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रश और देश्य भाषाओं में साहित्य-सृजन कर उसे समृद्ध बनाने में महान् योग दिया है। चैत्यवास का उन्मूलन कर सुविहितमार्ग को पुनः प्रतिष्ठित करना खरतरगच्छीय आचार्यों की सबसे बड़ी देन है। खरतरगच्छ बृहद्गुर्वावली में इस गच्छ के महान् आचार्यों के दीक्षा, बिहार, साधु-साध्वी समुदाय, स्थानीय श्रावकों के नाम, राजाओं के नाम, प्रतिद्वन्द्वी धर्माचार्यों से शास्त्रार्थ, तीर्थोद्धार आदि अनेक बातों पर विशद् प्रकाश डाला गया है। सम्प्रति लेख में इसी गुर्वांवली के आधार पर खरतरगच्छीय साध्वी परम्परा की एक झाँकी प्रस्तुत है। वर्धमानसूरि खरतरगच्छ के आदिम आचार्य माने जाते हैं। उनके शिष्य जिनेश्वरसूरि ने चौलुक्य नरेश दुर्लभराज की राजसभा में चैत्यवासी आचार्य को शास्त्रार्थ में पराजित कर गुर्जरधरा में सुविहितमार्गीय मुनियों के विहार को सम्भव बनाया। आचार्य जिनेश्वरसूरि द्वारा दीक्षित जिनचन्द्रसूरि, अभयदेवसूरि, जिनभद्र अपर नाम धनेश्वरसूरि, हरिभद्रसूरि, प्रसन्नचन्द्रसूरि, धर्मदेव, सहदेव आदि अनेक मुनियों का उल्लेख तो हमें मिलता है, परन्तु इनके द्वारा किसी महिला को दीक्षा देने का उल्लेख नहीं मिला है। खरतरगच्छवृहद्गुर्वावली से ज्ञात होता है कि इन्होंने स्वगच्छीय मरुदेवी प्रवर्तिनी को आशापल्ली में उसके संथारा के समय सल्लेखना पाठ सुनाया था। जिनेश्वरसूरि के शिष्य उपाध्याय धर्मदेव की आज्ञानुवर्तिनी साध्वियों द्वारा धोलका निवासी भक्त वाछिग और उसकी पत्नी बाहड़देवी के पुत्र सोमचन्द्र को सर्वलक्षणों से युक्त देखकर उसे दीक्षा प्राप्त करने का उल्लेख मिलता है। यही वालक आगे चलकर जिनदत्तसूरि के नाम से खरतरगच्छ का नायक बना। १. जैन और बौद्ध भिक्ष णी संघ, ड० अरुणप्रतापसिंह, पृ० १२-१३ २. खरतरगच्छ का इतिहास (प्रथम खण्ड) महोपाध्याय विनयसागर, भूमिका पृ० ४-५ ३. खरतरगच्छ का इतिहास (प्रथम खण्ड) महोपाध्याय विनयसागर भूमिका पृष्ठ ४-५। ४. यह अन्य मुनि जिनविजय जी के संपादकत्व में सिन्धी जैन ग्रन्थमाला के अन्तर्गत १९५६ ई० में प्रकाशित हो चुका है। ५. जिनविजय जी, संपा० खरतरगच्छवहद् गुर्वावली पृ०५ (बम्बई-१९५६) ६. जिनविजयजी, संपा० खरतरगच्छबृहदगुर्वावली पृ० १४-१५. बम्बई १९५६ Jain Education International www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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