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________________ खरतरगच्छीय साध्वी परम्परा : डॉ० शिवप्रसाद जिनचन्द्रसूरि और अभयदेवसूरि द्वारा दीक्षित साध्वियों का उल्लेख तो नहीं मिलता है, परन्तु इनके समय में भी खरतरगच्छ में साध्वी संघ की विद्यमानता को अस्वीकार नहीं किया जा सकता है । जिनवल्लभसूरि का अत्यधिक समय विधिमार्ग के प्रसार में ही व्यतीत हुआ । उनके उपदेशों से गुजरात, राजस्थान और मालवा के अनेक स्थानों पर विधिचैत्यों का निर्माण हुआ । आचार्य पद पर प्रतिष्ठित होने के कुछ माह पश्चात् ही उनका स्वर्गवास हो गया, तत्पश्चात् सोमचन्द्रगणि को जिनदत्तसूरि के नाम से जिनवल्लभ का पट्टधर बनाया गया । ७२ दत्तसूरि द्वारा अनेक साधु-साध्वियों को दीक्षा देने का उल्लेख मिलता है । उनके वरदहस्त बागड़ देश में श्रीमति, जिनमति, पूर्वश्री ज्ञानश्री और जिनश्री को साध्वी दीक्षा प्राप्त हुई । जिनदत्त सूरि अत्यन्त विद्यानुरागी आचार्य थे, इसीलिए उन्होंने अपने गच्छ के साधु-साध्वियों की शिक्षा पर अत्यधिक बल दिया। श्रीमति, जिनमति और पूर्व श्री इन तीन साध्वियों को अन्य स्वगच्छीय मुनियों के साथ उन्होंने अध्ययनार्य धारा नगरी भेजा था ।" उनकी ही शिष्या गणिनी शांतिमति ने वि० सं० १२१५ में प्रकरण संग्रह की प्रतिलिपि की, जो जैसलमेर ग्रन्थ भण्डार में सुरक्षित है । आचार्य जिनदत्तसूरि के स्वर्गारोहण के पश्चात् मणिधारी जिनचन्द्रसूरि वरतरगच्छ के नायक बने । इनके अल्पकाल के नायकत्व में भी खरतरगच्छ में अनेक साधु-साध्वियों को दीक्षा हुई । वि० सम्वत् १२१४ में इन्होंने त्रिभुवनगिरि में शान्तिनाथ जिनालय पर भव्य महोत्सव के साथ सुवर्णध्वज और कलश IT आरोपण किया और साध्वी हेमादेवी को प्रवर्तिनी पद से विभूषित किया ।" वि०सं० १२१८ में उच्चानगरी में उन्होंने ५ मुनियों के साथ जगश्री, गुणश्री और सरस्वती को साध्वी दीक्षा प्रदान की ।" वि०सं० १२२१ आचार्यश्री ने देव और उसकी पत्नी को अन्य ४ साधुओं के साथ दीक्षित किया | वि०सं० १२२३ भाद्रपद बदी चतुर्दशी को दिल्ली में आचार्यश्री का स्वर्गवास हो गया, तत्पश्चात् आचार्य जिनपतिसूरि को उनके पट्ट पर प्रतिष्ठित किया गया । जिनपतिसूरि ने वि० सं० १२२७ में उच्चानगरी में धर्मशील और उसकी माता को ५ अन्य व्यक्तियों के साथ दीक्षित किया। इसके पश्वात् वे विहार करते हुए मरुकोट पधारे, जहाँ अजितश्री ने उनसे प्रवज्या ली वि० सं० १२२६ में फलवधिका में अभयमति, आसमति और श्रीदेवी ने उनसे साध्वीदीक्षा प्राप्त की ।" यहीं वि०सं० १२३४ में साध्वी गुणश्री ने महत्तरा पद और जगदेवी ने साध्वी दीक्षा ली । 10 इसी नगरी में वि०सं० १२४१ धर्मश्री और धर्मदेवी को उन्होंने श्रमणी संघ में सम्मिलित किया । 11 वि०सं० १२४५ में पुष्करणी नगरी में संयमश्री, शान्तमति एवं रत्नमति को साध्वी दीक्षा दी गयी । 12 वि० सं० १२५४ में धारा नगरी में उन्होंने साध्वी रत्नश्री को दीक्षित १. जिनविजयजी, संपा० खरतरगच्छवृहद्गुर्वावली पृ० १५ ( बम्बई १९५६ ) ३. खरतरगच्छ बृहद्गुव विली २. खरतरगच्छ बृहद्गुर्वावली पृ० १८ पृ०१८ ४. श्री जैसलमेरदुर्गस्थ जैन ताड़पत्रीय ग्रन्थ भण्डार सूची- पत्र, संपा० मुनिपुण्यविजय क्रमांक १५४ पृ० ५१-५२ । ५. खरतरगच्छवृहद्गुर्वावली पृ० २० ७. खरतरगच्छवृहद्गुर्वावली पृ० २० ६. खरतरगच्छवृहद्गुर्वावली पृ० २३ ११. खरतरगच्छ्वृहद्गुर्वावली पृ० २४ Jain Education International ६. खरतरगच्छ्वृहद्गुर्वावली पृ० २० ८. खरतरगच्छवृहद्गुर्वावली पृ० २३ १०. खरतरगच्छ्वृहद् गुर्वावली पृ० २४ १२. खरतरगच्छ्वृहद्गुर्वावली पृ० ३४ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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