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________________ आर्या सज्जनश्रीजी की काव्य-साधना -डॉ0 नरेन्द्र भानावत (जयपुर) काव्य और अध्यात्म का गहरा सम्बन्ध रहा है। दोनों का उद्देश्य रस-दशा की प्राप्ति है। . रस-दशा वह दशा है, जहाँ तमस और रजस गुण तिरोहित हो जाते हैं और सात्त्विक गुणों का उद्रेक होता है । यह दशा हृदय की मुक्त अवस्था है, जहाँ सुख-दुःख से परे दिव्य आनन्द की अनुभूति होती है। काव्यशास्त्रियों ने रस को ब्रह्मानन्द सहोदर कहा है और अध्यात्म साधक तो ब्रह्मलीन अवस्था में रहता ही है। जब अध्यात्म साधक अपनी अनुभूति को शब्द का रूप देता है तब जो काव्य का सृजन होता है, उसका आनन्द हृदय की मुक्त दशा का आनन्द ही है। यहाँ न राग रहता है, न द्वेष । आर्यारत्न सज्जनश्रीजी इस काव्य-पथ की अध्यात्म साधिका हैं। हिन्दी साहित्य में भक्ति काव्य का विशेष महत्व है। अपने आराध्य के प्रति निश्छल समर्पण और विनम्र आत्म-निवेदन भक्ति-चेतना का मूल तत्त्व है। भक्ति-काव्य को समृद्ध करने में पुरुष-भक्त के साथ-साथ स्त्री भक्त कवयित्रियों की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। निर्गुणधारा की कवयित्रियों में दयाबाई, सहजोबाई, रूपादे, उमाबाई, सरूपाबाई, गबरीबाई आदि प्रसिद्ध हैं तो सगुणधारा की कवयित्रियों में कृष्ण भक्ति शाखा के अन्तर्गत मीराबाई, सोढ़ानाथी, छत्रकवरीबाई, सम्मानबाई, सौभाग्यकुवरी आदि के नाम हमारे सामने आते हैं तो राम-भक्ति शाखा के अन्तर्गत प्रतापकुंवरी, रत्नकंवरी और चन्द्रकलाबाई के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। डिंगल परम्परा की कवयित्रियों में झीमा चारणी, पद्मा चारिणी, चम्पादे रानी आदि प्रसिद्ध हैं । कृष्ण और राम को आराध्य बनाकर अपने भाव-पुष्प समर्पित करने वाली कवयित्रियों के समानान्तर ही वीतराग प्रभु ऋषभदेव, पार्श्वनाथ, श्रमण भगवान महावीर आदि तीर्थंकरों एवं सामान्य रूप से जिनेन्द्र भगवान् के चरणों में अपनी भक्ति-वन्दना निवेदित करने वाली साध्वी परम्परा की कई कवयित्रियाँ हुई हैं। उनमें गुण-समृद्धि, महत्तरा, विनयचूला, पद्मश्री, हेमश्री, हेमसिद्धि, विवेकसिद्धि, विद्यासिद्धि, हरकुबाई, हुलासाजी, सरूपाबाई, जड़ादजी, आर्या पार्वताजी, भूरसुन्दरीजी, रत्नकुंवरी आदि विशेष उल्लेखनीय हैं। इसी परम्परा में आर्यारत्न सज्जनश्रीजी का विशेष स्थान है। ___ आर्या सज्जनश्रीजी बहुआयामी प्रतिभा की धनी हैं। प्राकृत, संस्कृत, हिन्दी, राजस्थानी आदि भाषाओं पर आपका अच्छा अधिकार है। आगम एवं सैद्धान्तिक ग्रन्थों का आपने गहरा अध्ययन किया है और उनकी व्याख्या-विवेचना में भी अच्छी सफलता प्राप्त की है। आप हृदय से कोमल, स्वभाव ( १५६ ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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