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खण्ड १ | जीवन ज्योति : कृतित्व दर्शन
___ "कल्प" शब्द का एक अर्थ है, “आचार"। नियम व समाचारी सम्बन्धी मर्यादाएँ, जैसे स्थविर कल्प, जिनकल्प आदि । तथा “कल्प" शब्द का एक अर्थ है-इच्छित वस्तु प्रदान करने वाली दिव्य शक्ति, जैसे कल्पवृक्ष, कल्पद्र म ।
कल्पसूत्र-अपने दोनों ही अर्थों में सार्थक है। यह कल्पवृक्ष की भाँति दिव्य है । इच्छित फलमोक्ष लक्ष्मी प्रदान करने में समर्थ है, तो श्रमण जीवन की आचार-मर्यादा का दिग्दर्शन भी कराता है तथा साथ ही महापुरुषों, तीर्थंकर भगवन्तों के पवित्र चरित्र का वर्णन कर सभी वांछित फल प्रदान करने वाला शास्त्र है । संस्कृत-प्राकृत-अपभ्रंश-गुजराती-हिन्दी-अंग्रेजी आदि भाषाओं में शताधिक संस्करण छप चुके हैं, फिर भी बराबर इसकी माँग रहती है। जनता की मांग व युग की आवश्यकता को देखकर कलकत्ता के श्री जिनदत्त सूरि सेवा संघ, तथा स्थानीय धर्मप्रेमियों की प्रार्थना पर पूज्य प्रवर्तिनी श्री सज्जनश्री जी म. ने वि० सं० २००६ में इसका सरल हिन्दी अनुवाद विवेचन तैयार किया था। यह विवेचन-अनुवाद खरतरगच्छीय उपाध्याय श्री लक्ष्मीबल्लभ गणि कृत कल्पद्र मकलिका के आधार पर किया गया है। उसकी कृति का यह एक स्वतन्त्र अनुवाद है।
जैसा कि प्रारम्भ में मैंने कहा है-अनुवाद करना, मौलिक रचना से भी कठिन है, इसमें मूल ग्रन्थकार (शास्त्रकार) की भावना, उनका उद्देश्य और तत्कालीन समाज में प्रचलित शब्दों के अर्थ को समझना बहुत ही महत्व का है।
दो हजार वर्ष पुराने शास्त्र का अनुवाद करते समय दो हजार वर्ष पुरानी सभ्यता, संस्कृति, परम्परा, इतिहास, लोकाचार और दार्शनिक मान्यताओं का यदि ज्ञान नहीं है तो अनुवादक मूल शास्त्र के साथ न्याय नहीं कर सकता। अनुवादक विशेषज्ञ और कुशलप्रज्ञ होना चाहिए। यह सब विशेषता प्रवर्तिनीश्रीजी कृत अनुवाद पढ़ते समय स्वयं सजीव देखी जाती हैं। अनुवाद पढ़ते समय मूल शास्त्र पढ़ने का आनन्द अनुभव होता है । कहीं ऊब, ऊलझन नहीं, दुर्गमता नहीं और दुर्बोधता भी नहीं। ऐसा लगता है, नंदनवन की सीधी सपाट स्निग्ध धरती पर विचरण कर रहे हैं।
__ कल्पसूत्र जैसे विशाल शास्त्र का अनुवाद अनुवादक की दृढ़ इच्छा शक्ति, निष्ठा, तन्मयता और एक कार्य में जुटकर उसे पूर्ण कर देने की प्रबल आत्मशक्ति का द्योतक है।।
___इसकी भाषा प्राञ्जल है । मूल पाठ का भावग्राही अनुवाद इतना सरल है कि फिर उसकी परिभाषा बताने की, व्याख्या करने की आवश्यकता नहीं लगती। चूंकि यह शास्त्र प्रवचन का विषय है । इसलिए इसकी भाषा को सहज जनबोध्य रखना अनुवादक की समयज्ञता और जनरुचि का आदर करना ही माना जायेगा।
भारत की एक प्राचीन परम्परा जहाँ स्त्री को वेद पढ़ने के अधिकार से ही वंचित रखती है और आज भी कुछ परम्पराएँ स्त्री को शास्त्र-पढ़ने के अधिकार देना नहीं चाहतीं । ऐसी स्थिति में एक विदुषी साध्वी (नारी) इतने महत्वपूर्ण शास्त्र की इतनी सुन्दर विवेचना, और व्याख्या करती है, यह भारतीय संस्कृति के गौरव में चार चांद लगाने वाला विषय है । जैन परम्परा की समत्व भावना का यह स्पष्ट उद्घोष है, और इस परम्परा की उदारता, गरिमा का अखण्ड मण्डन है, जो युग-युग तक शोभास्पद बना रहेगा।
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