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प्रवर्तिनी श्री सज्जनश्रीजी महाराज का अद्भुत-अनुवाद-कौशल
१५७ आर्यारत्न श्री सज्जनश्रीजी महाराज ने इसकी स्वोपज्ञवृत्ति के आधार पर वि. सं. २०२५-२७ के मध्य इसका सुन्दर भावपूर्ण अनुवाद किया है । यह अनुवाद, अनुवाद ही नहीं, बहुत ही सुन्दर भावोद्घाटिनी व्याख्यायुक्त है । विदुषी आर्या श्रीजी ने अपने ज्ञान रस को शब्दों की कटोरियों में इस प्रकार परोसा है कि अध्यात्म रस का भूखा पाठक आनन्दपूर्वक पीता रहे, पीता रहे, तृप्ति का अनुभव करता रहे । अध्यात्मप्रधान विषय होकर भी विवेचन बहुत ही सरल और सर्वांग हैं। बीच-बीच में अन्य ग्रन्थों के सन्दर्भ देकर आपने विवेचन को अधिक प्रामाणिक और परिपूर्ण बना दिया, यह आपकी बहुश्रु तता का स्पष्ट प्रमाण है । देशनासार-वास्तव में देशना (जिनप्रवचन) का सार है, नवनीत है।
(२) द्रव्य प्रकाश-- अध्यात्मवेत्ता श्रीमद् देवचन्द्र जी गणि की यह रचना द्रव्यानुयोग पर आधारित है । ब्रजभाषा में दोहा, सवैया, चौपाई, कुन्डलिया, चन्द्रायणा, कवित्त आदि छन्दों में निबद्ध है । यह ग्रन्थ तीन अधिकारों में विभक्त है, प्रथम अधिकार में षद्रव्य का विवेचन है, द्वितीय अधिकार में कर्म प्रकृतियों का तथा तृतीय अधिकार नय, निक्षेप, स्याद्वाद तथा षड्दर्शन की समीक्षा करते हुए जैनदर्शन की तर्क-युक्तिसंगत विवेचना है।
मूल काव्य ब्रजभाषा में होने से शब्दों को समझ पाना तो सरल है, किन्तु विषय बहुत गंभीर है । बिना जैनदर्शन व अन्य दर्शनों के अध्ययन के इस ग्रन्थ का विवेचन तो क्या, हार्द समझना भी कठिन है। इस विवेचन की स्पष्टता और सरलता से यह पता चलता है कि पूज्य प्रवर्तिनी श्री जी का ज्ञान सिर्फ शास्त्रीय ज्ञान नहीं है, वह ज्ञान आत्मसात् हो चुका है, उनके हृदय के कण-कण में रम चुका है। इसलिए विवेचन करते हुए बड़ी सहज शब्दावली में बहुत ही सरलतापूर्वक वे उसके हार्द को अभिव्यक्ति देने में समर्थ हुई हैं।
इस छोटे से विवेचन में जैनदर्शन का सम्पूर्ण सार समा गया है। जो विषय हजारों पृष्ठों में लिखा जाता है, वह विषय विवेचन के सिर्फ ७०-७५ पृष्ठों में समा गया है । इसे ही हम 'सिंधु बिन्दु समाये' की कुशलता कह सकते हैं।
इन दोनों अनुवादों पर से पूज्य आर्या श्री जी की अध्यात्म एवं दर्शन विषय में गहरी पैठ और उसकी हृदयंगमता की स्पष्ट प्रतीति होती है।
शब्दों की सरलता और यथार्थ उपयोग उनके भाषाज्ञान का भी प्रमाण है । एक जैन साध्वी द्वारा किया गया यह विवेचन वास्तव में गौरव का विषय है और साध्वी समुदाय के वैदुष्य का ज्वलन्त प्रमाण है।
(३) कल्पसूत्र-भाषानुवाद :-“कल्पसूत्र" श्वेताम्बर जैन समाज की "रामायण" मानी जाती है । सम्पूर्ण जैन समाज में साधु-साध्वी श्रावक-श्राविका चतुर्विध तीर्थ में इस शास्त्र का सबसे अधिक पठन, पाठन, वाचन, श्रवण होता है। इस शास्त्र की सबसे अधिक व्याख्याएँ/अनुवाद छपे हैं । विविध प्रकार की साज-सज्जा से स्वर्ण-रोप्य चित्रमय, बड़े अक्षरों में सुनहले अक्षरों में छपे हुए इस शास्त्र की विविध प्रकार की प्रतियाँ देखकर सहज ही अनुमान होता है कि युग-युग से इस शास्त्र का सर्वाधिक महत्व रहा है । जिन प्रतिमा की भाँति ही यह शास्त्रराज भी जनता की श्रद्धाअर्चा का विषय बना हुआ है।
पर्युषण पर्व के दिनों में तो जैन मन्दिर-उपाश्रय-स्थानक आदि धर्म सभाओं में कल्पसूत्र का वाचन करना, एक प्राचीन परम्परा रही है, और आज भी इसका सजगता व उत्साहपूर्वक पालन होता है।
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