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________________ १५६ खण्ड १ | जीवन ज्योति : कृतित्व दर्शन नई रचना/सर्जना करना एक स्वतन्त्र कला है, इसमें जन्मजात प्रतिभा की प्रधानता है, किन्तु अनुवाद करना एक कठिन कला है। इसमें शब्द शास्त्र का गम्भीर ज्ञान, आगम-इतिहास आदि विषयों का परिपूर्ण परिशीलन होना बहुत ही आवश्यक है। नवसर्जना से भी अनुवाद करना कठिन है। वास्तव में कुशल और सफल अनुवादक वही हो सकता है, जिसके ज्ञान की चतुःसीमा विस्तृत हो और अनुभव परिपक्व हो। अनुवादक सिर्फ ट्रांसलेटर मात्र नहीं होता, वह शब्दों का व्याख्याकार भी होता है। शब्दों अर्थ और व्यंजन का गम्भीर ज्ञाता और उद्घाटक होता है, तभी वह अनुवाद्य ग्रन्थ के साथ के साथ सम्पूर्ण न्याय कर सकता है। साथ ही अनुवादक अनाग्रहवादी, तटस्थ विचारक और सम्यग्बोधि होना चाहिए । वह शब्दों में सुप्त अर्थ को अपनी मान्यता व धारणा का रंग नहीं देता, किन्तु शब्दों के सन्दर्भ को समझकर उसके पूर्वापर की परम्परा को ग्रहण कर उसका वास्तविक रूप निखारता है/उघाड़ता है। अनुवादक की बुद्धि और भाषा रंगीन बोतल नहीं होना चाहिए, जिसमें रखी प्रत्येक वस्तु बोतल के रंग में ही दीखने लगे, किन्तु उसकी बुद्धि और वाणी तो शुभ्र श्वेत शीशी होती है, जो वस्तु के असली रूप को दर्शाती है । यही अनुवादक की कुशलता-नीति निष्ठता और सम्यग्सम्बुद्धता है। प्रवर्तिनी सज्जनश्रीजी महाराज के बौद्धिक व्यक्तित्व में यह विरल विशेषता है कि वे एक सृजनधर्मी कवयित्री हैं। काव्यकला उनको जन्मजात गुण के रूप में प्राप्त है। उनकी भक्ति-उपदेशवैराग्य प्रधान रचनाएँ बहुत ही ललित और जीवन्त प्रेरणा भरी हैं। उनका स्वर भी मधुर है, जो सोने में सुगन्ध कहा जा सकता है। वे संस्कृत-प्राकृत आदि भाषा की मर्मज्ञा हैं और न्याय-दर्शन आदि शास्त्रों की विदुषी हैं । किन्तु इसके साथ ही उनकी एक अन्य दुर्लभ विशेषता है, और वह है, अनुवाद-कुशलता। प्रवर्तिनीश्रीजी की प्रज्ञा इतनी जागरूक है कि विषय को एक ही बार में गहराई से पकड़ लेती हैं और पदानुसारी बुद्धि की तरह एक ही शब्द को आधार बनाकर उसके पूर्वापर सन्दर्भ को सम्यग्रूप से ग्रहण कर लेती हैं । उन्होंने नई रचनाओं के साथ ही कई सुन्दर व उत्कृप्ट अनुवाद भी किये हैं, जो सम्पूर्ण जैन समाज में अध्यात्म-पिपासु पाठक वर्ग में समाहृत हुए हैं, उनके अनुवाद चाव से पढ़े जाते हैं और पाठक उनमें मूल ग्रन्थ का सा रसास्वाद पाकर बार-बार पढ़ता है । उसमें रस-विभोर हो जाता है। (१) अध्यात्म प्रबोध : देशनासार प्रवर्तिनीश्रीजी द्वारा अनूदित रचनाओं में से कुछ रचनाएं बहुत प्रसिद्ध हैं, जैसे अध्यात्म प्रबोधदेशनासार तथा द्रव्य-प्रकाश । ये दोनों ही ग्रन्थ खरतरगच्छ के विश्र त विद्वान प्रसिद्ध अध्यात्मवादी श्रीमद् देवचन्द्रजी की रचनाएँ हैं। श्रीमद् देवचन्द्रजी का जन्म बीकानेर के निकटवर्ती ग्राम में लूणिया गोत्र में ही हुआ । उन पर पं० बनारसीदासजी आदि की अध्यात्मवादी रचनाओं का विशेष प्रभाव पड़ा। और उस युग में अध्यात्मप्रधान रचनाओं की विशेष आवश्यकता अनुभव कर उन्होंने अपनी लेखिनी उठाई और अनेक गम्भीर अध्यात्म प्रधान ग्रन्थों की सर्जना की । उनकी भाषा में सहजता और अध्यात्म रसिकता की स्पष्ट झलक है । देशनासार, एक प्राकृत गाथा बद्ध ग्रन्थ है, इसमें मुख्यतः आत्मा, सम्यग्दर्शन, कर्म आदि गंभीर आध्यात्मिक विषयों की चर्चा है । लेखक ने स्वानुभव के आधार पर इन विषयों की बड़ी सुगम और हृदयस्पर्शी विवेचना की है। अध्यात्मविषयक यह एक बहुत ही महत्वपूर्ण कृति है और अब तक अप्रकाशित ही थी। प्रसिद्ध विद्वान श्री अगरचन्द जी नाहटा ने इस कृति का अनुसन्धान किया और विदुषी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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