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________________ खण्ड ४ : धर्म, दर्शन एवं अध्यात्म-चिन्तन कषाय सहित और रहित आत्मा का योग क्रमशः साम्परायिक और ईपिथ कर्म का बन्ध हेतु आस्रव होता है। जिन जीवों में क्रोध-मान-माया-लोभ आदि कषायों का उदय हो, वह कषाय सहित हैं । पहले से दसवें गुणस्थान तक के जीव न्यूनाधिक मात्रा में कषायसहित हैं और ग्यारहवें-आदि आगे के गुणस्थानों वाले जीव कषाय रहित हैं। कर्माशय क्लेशमूल पाँच क्लेश जिसकी जड़ है, ऐसी कर्म की वासना वर्तमान और भविष्य में होने वाले दोनों जन्मों में भोगा जाने के योग्य है। जिन महान योगियों ने क्लेशों को निर्बीज समाधि द्वारा उखाड़ दिया है, उनके कर्म निष्काम अर्थात् वासनारहित केवल कर्तव्य-मात्र रहते हैं, इसलिए उनको इसका फल भोग्य नहीं हैं । जब क्लेशों के संस्कार चित्त में जमे हों तब उनसे सकाम कर्म उत्पन्न होते हैं। शुभ-अशुभ आस्रव-पुण्य-पाप कर्म- शुभ योग पुण्य का बन्ध हेतु है और अशुभ योग पाप का बन्धहेत है। पूण्य का अर्थ है, जो आत्मा को पवित्र करे । अशुभ-पाप कर्मों से मलिन हुई आत्मा क्रमशः शुभ कर्मों का-पुण्य कर्मों का अर्जन करती हुई पवित्र होती है, स्वच्छ होती है । आचार्य कुन्दकुन्द लिखते हैं-"जिसके मोह-राग-द्व'ष होते हैं, उसके अशुभ परिणाम होते हैं। जिसके चित्त प्रसाद-निर्मल चित्त होता है, उसके शुभ परिणाम होते हैं। जीव के शुभ परिणाम पण्य हैं और अशुभ परिणाम पाप । शुभ-अशुभ परिणामों में से जीब के जो कर्म-वर्गणा योग्य पुद्गलों का ग्रहण होता है, वह क्रमशः द्रव्य पुण्य-द्रव्य पाप है। योग दर्शन के अनुसार "वे जन्म, आयु और भोग-सुख-दुःख फल के देने वाले होते हैं, क्योंकि उनके पुण्य कर्म और पापकर्म दोनों ही कारण हैं।" आठ कर्मों में पुण्य-पाप-प्रकृतियाँ प्रत्येक आत्मा में सत्तारूप से आठ गुण विद्यमान हैं१. अनन्त ज्ञान ५. आत्मिक सुख २. अनन्त दर्शन ६. अटल अवगाहन ३. क्षायिक सम्यक्त्व ७. अमूर्तिकत्व ४. अनन्तवीर्य ८. अगुरुलधुभाव कर्मावरण के कारण ये गुण प्रकट नहीं हो पाते । जीव द्वारा बाँधे जाने वाले आठ कर्म हैंज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय, अन्तराय, वेदनीय, आयुष्य, नाम और गौत्र-ये ही क्रमशः आत्मा के आठ गुणों को प्रकट होने नहीं देते। कर्मों की मूल प्रकृतियों, उत्तरप्रकृतियों में पुण्य पाप का विवेचन निम्न प्रकार मिलता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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