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________________ १०६ हिंसा घृणा का घर : अहिंसा आत्मा का निर्झर : डा० आदित्य प्रचंडिया 'दीति' रहकर, सबके बीच रहकर जो प्रामाणिक रहता है वहाँ उसकी परख होती है । विरोधी हो या मित्र किसी के साथ अप्रामाणिक व्यवहार नहीं होना चाहिए। जहाँ कहनी और करनी में एकतानता न हो वहाँ हिंसा मुखर होती है । व्यक्ति जो सोचता है वही कहे, जो कहता है वही करे तो निश्चय ही वह अहिंसा के भव्य और दिव्य महल के प्रवेश-द्वार पर पहुँच जायेगा । कहनी और करनी में असमानता आत्मवंचना है । अहिंसक स्व-पर की भूमिका से ऊपर उठा हुआ होता है । वह अन्याय का पक्षधर नहीं होता । अनाचारों से समझौता नहीं करता, वह तो जीवन भर सत्य का उपासक बना रहता है। हिंसा मारना सिखाती है और अहिंसा मरना । हिंसा बचना सिखाती है और अहिंसा बचाना। मारना क्रूरता है, मरना वीरता । बचना कायरता है, बचाना दयालुता है । अहिंसा हृदय की मुदुता है । मृदुता में दुर्बलता और विकार न आ जाय इसकी पहरेदारी सत्य को करनी होती है। हमारे मन में जब तक विचार और आचार के मध्य एक गहरे सामञ्जस्य की दीपशिखा न टिमटिमायेगी तब तक हमारी जीवन बगिया में स्नेह-सदभावना की हरियाली नहीं लहलहायेगी। अनुकम्पा के अंकुर नहीं फूटेंगे। दया के सुरभित सुमन नहीं खिलेंगे और विश्वमैत्री के मधुर फल जन-जन के मन को आकर्षित नहीं करेंगे । वस्तुतः संसार रूप मरुस्थल में अहिंसा ही एक अमृत का निर्झर है। उसमें जीवन का एक सरस संगीत है । अहिंसा मानवता के आगम का जगमगाता आलोक है । वह तो संस्कृति का प्राण है; धर्म और दर्शन का मूलाधार है। उसमें अनन्त प्रेम है और है कष्ट सहने की अनन्त शक्ति । आइए, इस आनन्द के रथ पर आरूढ़ होकर हम स्वयं महकें और सबको महकाएँ । ___ मंगलकलश ३६४, सर्वोदयनगर आगरा रोड, अलीगढ (उ० प्र०) 0 अरे ! मनुष्य के फूल बड़े परिश्रम से खिलते हैं। गुलाब का फूल कितना संघर्ष करके; कितनी निश्चिन्तता से खिलता है और पता नहीं किस काल में वह मुरझा जायेगा ? फूल खिला है, तो मुरझायेगा जरूर, मगर मुरझाने से पहले हमें फूल की खुशबू ले लेनी है । फूल के मधु का पान कर लेना है । अपने मनुष्य-जन्म को, अपने मनुष्यत्व को, अपने संघर्ष को, अपनी ताकत को सदुपयुक्त कर लेना है। बहुत से लोग ऐसे होते हैं जो सोये-सोये उस फूल को खो देते हैं । अरे ! भले मानुष ! कितना महिमावन्त है यह जीवन ! किसी भी अन्य जीवन में तुम मोक्ष की साधना नहीं कर सकते । पूर्णरूपेण यही एक जीवन ऐसा है, मनुष्यत्व ही एक ऐसा फूल है जो पूर्णतया खिल सकता है। पूर्णतया सुगन्ध फैला सकता है। -महोपाध्याय चन्द्रप्रभसागर ('महावीर के महासूत्र' से) Jain Education International For Private Penal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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