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________________ खण्ड ४ : धर्म, दर्शन एवं अध्यात्म-चिन्तन १०५ सके हमारे द्वारा किसी दिल को भी रंज न पहुँचे, क्योंकि एक आह् सारे संसार में खलबली मचा देती है। सभी प्राणियों को दुःख अप्रिय लगता है अतः किसी को नहीं मारना चाहिए । उन पर हुकूमत भी नहीं करनी चाहिये । न उन्हें अधीन रखना चाहिए। न ही उनको परिताप देना चाहिए। उद्विग्न भी उन्हें कदापि नहीं करना चाहिए। आत्मविमुखता हिंसा है। बाहरी स्थिति आत्मविमुखता की जननी है । सरलता आत्म-पवित्रता की सूचक है । बाह्य पर्यावरणों में जो चाकचिक्य है, बाह्य जगत के लुभावने और मोहक रंगों में जो आकर्षण है उससे आत्मा में वक्रता पैदा होती है । सरलता स्वभाव है, वक्रता विभाव है । हिंसा से उपरत वही व्यक्ति हो सकता है जो अंजुसरल है, आत्मस्थ है, धार्मिक है । जो सरल होता है, वह दूसरों के हनन में अपना हनन देखता है । दूसरों के परवश करने में अपनी परवशता देखता है, दूसरों के परिताप में अपना परिताप देखता है, दूसरों के निग्रह में अपना निग्रह देखता है और दूसरों की हिंसा में अपनी हिंसा देखता है। ये सब अहिंसा के ही तो परिणाम हैं । धार्मिक वही है जो क्रिया की प्रतिक्रिया का अनुसंवेदन करता है । जो जानता है कि जिसे मैं मारना चाहता हूँ, वह मैं ही हूँ, जिसे मैं ठगना चाहता हूँ वह मैं ही हूँ। आज व्यक्ति दृश्यदर्शी हो गया है । दृश्य के द्रष्टा से तो वह बेखबर है । वर्तमान को प्रमाण मान अतीत और अनागत को पर्दा डाल रहा है, झुठला रहा है। वह पुण्य की क्यारी में विष का बीज वपन करने में संलग्न है। जिससे क्रूरता भी वद्धित हुई है। व्यक्ति के भीतर-बाहर वह मुसकाती है । समत्वबोध लुप्त हो गया है। सर्वत्र असमत्व भाव आज प्रसर्पित है । एषणाएं व्यक्ति में घर जो कर गई हैं। आकांक्षाओं ने उसको उन्मत्त बना दिया है । आज व्यक्ति कई मीलों को मिनटों में नाप सकता है, परिधि सिमट आई है लेकिन भीतर से वह कोसों दूर-सुदूर होता जा रहा है । दूसरों के गुणों को देखकर चिढ़ना या ईर्ष्या करना, मैं हिंसा मानता हूँ। जिस प्रकार व्यक्ति को अपने गुण अच्छे लगते हैं उसी प्रकार दूसरों के गुणों की भी कद्र करनी चाहिए । प्रत्येक व्यक्ति में कुछ न कुछ गुण होते ही हैं, हमें उन्हें आगे रखकर चलना चाहिए । उनको कहने में ईर्ष्या नहीं होनी चाहिए। गुण चाहे अपने परिचित के हों या अन्य किसी के, उनको अपनाने में हिचकिचाहट क्यों ? केवल अपनी ही प्रशंसा करना क्या अभिमान का संकेतक नहीं ? दूसरों में आत्मीयता पैदा करने का, दूसरों के हृदय को जीतने का सरलतम उपाय है-दूसरों के गुणों को प्रकाशित करना। दूसरों की चापलूसी भले ही न करें किन्तु वास्तविक बात कहने में भी यदि डरें तो वह निर्भय कहाँ रहा ? अहिंसा तो निर्भयता का पाठ पढ़ाती है। विनय आत्मा का स्वभाव है, गुण है । जो व्यक्ति इस गुण से मंडित है, ओतप्रोत है, वह हिंसक नहीं, अहिंसक होता है । उद्दण्डता या अविनय, घृणा या दोष को पैदा करती है । घृणा से दूरी बढ़ती है, एक दूसरे के बीच खाई खुद जाती है । द्वष से बैर भाव या निन्दा को प्रश्रय मिलता है। व्यक्ति में मृदुता का विकास होना चाहिए। मृदुता का अर्थ दीनता नहीं किन्तु उद्दण्डता का अभाव है। दीनता कमजोरी पैदा करती है और कमजोरी व्यक्ति को पथभ्रष्ट करती है। मदुता आत्मविश्वास बढ़ाती है और व्यक्ति को बलवान बनाती है । अतएव हिंसा, प्रतिहिंसा का मार्ग पशुता का मार्ग है। वह पशुबल है । प्रेम और सद्व्यवहार का मार्ग मानवता का मार्ग है, वह मानवीय बल है। व्यक्ति का प्रत्येक वचन और क्रियाकलाप प्रामाणिक होने चाहिए। इसका निकष सहयोग में है, अकेलेपन में नहीं । सबके साथ खण्ड ४/१४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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