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________________ पुण्य जीवन ज्योति-पुण्य जीवन ज्योति अवगाहन १६६ सुवर्णश्रीजी महाराज साहिबा की प्रेरणा से जोधपुर के कवि पं० नित्यानन्द शास्त्री ने इस चरित्र को महाकाव्य के रूप में संस्कृत भाषा में लिखा था, पर यह काव्य अपूर्ण था । सुयोग से इसके अनुवाद की प्रति भी उपलब्ध हो गयी, पर उसकी भाषा ठीक नहीं थी। अतः लेखिका ने दो वर्ष के अथक परिश्रम से असम्बद्धता तथा अपूर्णता को दूर कर आधुनिक शैली में राष्ट्रभाषा हिन्दी में इसका आलेखन किया। ग्रन्थ का आरम्भ "दिव्य विभूतियों की महत्ता' से होता है जिसमें चरित्रनायिका के महत्व का उल्लेख है। "जैन धर्म में महिलाओं का स्थान" एक विचारात्मक लेख है, जिसमें जैनधर्म की समानता के आदर्श का वर्णन है। चरित्रनायिका का पावन चरित्र ३६ शीर्षकों में विभाजित हैं, जिनमें उनके जन्म और बाल्यकाल, विवाह, वज्रपात, सत्संगति का प्रभाव, वैराग्य का उद्भव, दीक्षा महोत्सव, पवित्र जीवन के पथ पर, विविध स्थानों पर चातुर्मास, दीक्षाओं की धूम, महाप्रस्थान और चरित्रनायिका के कुछ विशिष्ट गुणों का उल्लेख है । लेखिका ने चरित्रनायिका के जीवन का अंकन केवल सुने या पढ़े हुए तथ्यों के आधार पर ही नहीं किया है, वरन् उसे अपने साधु जीवन की अनुभव सौरभ से भी सुवासित कर दिया है । लेखिका के व्यक्तिगत अनुभवों के कारण वर्णन मौलिक, सम्प्रेषणीय और प्रभावोत्पादक बन गये हैं। लेखिका का विश्वास है कि विश्वशान्ति आध्यात्मिक जागृति के बिना असंभव है। केवल भौतिक उन्नति से ही सुख-शान्ति की आशा रखना मगमरीचिका है । आध्यात्मिक विश्वासों के बिना मानव की पशुता विकसित होकर अनर्थ की परम्पराओं को बढ़ाती है। उत्तम साहित्य सरिता में अवगाहन करने से पाठक के हृदय में आशा, विश्वास और उल्लास की उमियाँ उछलने लगती हैं, निराशा, सन्देह और विषाद दूर भाग जाते हैं। उत्साह का समुद्र उमड़ जाता है, आलस्य नष्ट होकर स्कूति आ जातो है । अध्ययनशील व्यक्ति गौरवपूर्ण विचारशक्ति युक्त हो जाता है। उसमें सत्संकल्प जाग्रत रहता है । वह सदैव आत्मसम्मान को प्रधानता देता है। कभी ऐसा आचरण नहीं करता जिसे उसे अपमानित होना पड़े। .."उसका चरित्र पूर्ण उत्कर्ष को पहुँच जाता है । वह मानव से ऊँचा उठकर देव (महामानव) बन जाता है। मातृभूमि के प्रति कर्तव्यबोध का वर्णन करती हुई लेखिका कहती है-“जन्म भूमि या स्वदेश के प्रति जीव मात्र को सहज आकर्षण होता है । जहाँ मनुष्य जन्म लेता है, जहाँ की मृत्तिका में खेल-कूद कर बड़ा होता है, जहाँ के अन्न-जल से उसके चरित्र का पोषण होता है, उस स्थान के प्रति एक प्रकार का ममत्व भाव होता ही है। मातृभूमि का ऋण चुकाना प्रत्येक का कर्तव्य है । इसमें किसी को सन्देह करने का कोई कारण नहीं । यह विषय निर्विवाद है।" __एकता के महत्व का उपदेश करते हुए लेखिका ने कहा है-"एक ही धर्म के अनुयायियों में मनोमालिन्य होना, धर्म को कलंकित करना है । भगवान तीर्थंकर देवों का धर्म कषाय रहते आराधन नहीं किया जा सकता । धर्म रूपी हर्म्य में प्रवेश करने का प्रथम द्वार सम्यक्त्व है । आपने सुना होगा कि तक आत्मा में अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ, रूप कषाय का भूत रहता है और गलत मान्यताएँ रहती हैं, तब तक सम्यक्त्व रत्न की प्राप्ति नहीं हो सकती। श्रावक का पद तो सम्यक्त्वी से भी ऊँचा होता है । समयक्त्वी भी एक वर्ष से अधिक कषाय को रखे तो सम्यक्त्व भ्रष्ट हो जाता है । श्रावक तो कषाय रख ही नहीं सकता। यदि रखता है तो श्रावक धर्म से पतित होता है।" खण्ड-१/२२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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