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________________ खण्ड ५ : नारी-त्याग, तपस्या, सेवा की सुरसरि १३७ आगमिक व्याख्याओं में उन घटनाओं का भी उल्लेख है जिनके कारण स्त्रियों को पुरुषों की वासना का शिकार होना पड़ा था। पुरुषों की वासना का शिकार होने से बचने के लिए भिक्षुणियों को अपनी शील-सुरक्षा में कौन-कौन-सी सतर्कता बरतनी होती थी यह भी उल्लेख निशीथ और बहत्कल्प दोनों में ही विस्तार से मिलता है । रूपवती भिक्षुणियों को मनचले युवकों और राजपुरुषों की कुदृष्टि से बचने के लिए इस प्रकार का वेश धारण करना पड़ता था ताकि वे कुरूप प्रतीत हों। भिक्षणियों को सोते समय क्या व्यवस्था करनी चाहिए इसका भी बृहत्कल्पभाष्य में विस्तार से वर्णन है। भिक्षुणी संघ में प्रवेश करने वालों की पूरी जाँच की जाती थी। प्रतिहारी भिक्षुणी उपाश्रय के बाहर दण्ड लेकर बैठती थी। शील सुरक्षा के जो विस्तृत विवरण हमें आगमिक व्याख्याओं में मिलते हैं उससे स्पष्ट हो जाता है कि पुरुष वर्ग स्त्रियों एवं भिक्षुणियों को अपनी वासना का शिकार बनाने में कोई कमी नहीं रखता था । पुरुष द्वारा बलात्कार किये जाने पर और ऐसी स्थिति में गर्भ रह जाने पर संघ उस भिक्षुणी के प्रति सद्भावनापूर्वक व्यवहार करता था तथा उसके गर्भ की सुरक्षा के प्रयत्न भी किये जाते थे। प्रसूत बालक को जब वह उस स्थिति में हो जाता था कि वह माता के बिना रह सके तो उसे उपासक को सौंपकर अथवा भिक्षु संघ को सौंपकर ऐसी भिक्षणी पूनः भिक्ष णी संघ में प्रवेश पा लेती थी।। ये तथ्य इस बात के सुचक हैं कि सदाचारी नारियों के संरक्षण में जनसंघ सदेव सजग था। नारी-रक्षा बलात्कार किये जाने पर किसी भिक्षणी की आलोचना का अधिकार नहीं था। इसके विपरीत जो व्यक्ति ऐसी भिक्षणी की आलोचना करता उसे ही दण्ड का पात्र माना जाता था। नारी की मर्यादा की रक्षा के लिए जैनसंघ सदैव ही तत्पर रहता था। निशीथचूणि में उल्लेखित कालकाचार्य की कथा इस बात का प्रमाण है कि अहिंसा का प्राणपण से पालन करने वाला भिक्षु संघ भी नारी की गरिमा को खण्डित होने की स्थिति में दुराचारियों को दण्ड देने के लिए शस्त्र पकड़कर सामने आ जाता था। निशीथचूर्णि में कालकाचार्य की कथा इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि आचार्य ने भिक्षुणी' एवं बहन सरस्वती की शील-सुरक्षा के लिये गर्दभिल्ल के विरुद्ध शकों की सहायता लेकर पूरा संघर्ष किया था । निशीथ, बृहत्कल्प, भाष्य आदि में स्पष्ट रूप से ऐसे उल्लंख हैं कि यदि संघस्थ भिक्षणियों की शील-सुरक्षा का प्रश्न है और उसके लिए दुराचारी की हत्या करने का भी प्रश्न उपस्थित हो जाये तो ऐसी हत्या का भी समर्थन किया गया था और ऐसे भिक्ष को संघ में सम्मानित ही किया जाता था। बृहत्कल्प भाष्य में कहा गया है कि जल, अग्नि, चोर और दुष्काल की स्थिति में सर्वप्रथम स्त्री की रक्षा करनी चाहिए । इसी प्रकार डूबते हुए श्रमण और भिक्षुणी में पहले भिक्षुणी को और क्षुल्लक और क्षुल्लिका में से क्षुल्लिका की रक्षा करनी चाहिए। सती प्रथा और जैनधर्म उत्तरमध्य युग में नारी उत्पीड़न का सबसे बीभत्स रूप सती प्रथा बन गया था, यदि हम सती प्रथा के सन्दर्भ में जैन आगम और व्याख्या साहित्य को देखें तो स्पष्ट रूप से हमें एक भी ऐसी घटना का उल्लेख नहीं मिलता जहाँ पत्नी पति के शव के साथ जली हो या जला दी गयी हो। यद्यपि निशीथचूर्णि में एक ऐसा उल्लेख मिलता है जिसके अनुसार सौपारक के पाँच सौ व्यापारियों को कर न देने के कारण राजा ने जला देने का आदेश दे दिया था, और उक्त उल्लेख के अनुसार उन व्यापारियों की पत्नियाँ भी १. निशीथचूणि, भाग १, पृ० १२६ । २. निशीथचूणि, भाग ३, पृ० २३४ । खण्ड ५/१८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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