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मणिरत्नों का व्यवसाय प्रधान
गुलाबी शह्र जयपुर सम्वत् १६६५ की वैशाख शुक्ला पूर्णिमा पूर्ण ज्योत्स्ना में थिरकता चन्द्र स्निग्ध चाँदनी में नहायी -सी धरती पुलकित उल्लसित वातावरण ऐसे में
श्रेष्ठीवर्य गुलाबचंदजी लूणिया के वंशोधान में
भार्या महताब देवी की कुक्षि डाल पर एक सुवासित कली खिली
महक - महक गया
धरती का हरित आँचल । पितृगृह की दुलार भरी प्यार भरी
मृदु मुदुल बयार के
मन्द सुगन्ध झोंकों में विकसित होकर दीवान नथमलजी जौहरी के सुपौत्र के साथ
परिणय सूत्र में बंधी | किन्तु मुक्त को बंधन कैसा ?
प्रकाश को अंधकार कैसा ?
हृदय रम न पाया उस भोग विलास भरे कृत्रिम वातावरण में
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पुण्यश्लोका सज्जन श्रीजी
- श्रीमती राजकुमारी बेगानी
अतः
खुली श्वांसों के लिए संस्कारों के वातायन से
स्वार्थपरक जगत को झाँका ।
खुल पड़े स्मृति पटल स्मरण हो आया
नव किसलयों का हरे पल्लवों का
सूखे पीत पर्णों में बदलकर
झर जाना उपेक्षित चरणों से कुचलकर निष्ठुर हाथों से झाड़ बुहार कर फेंक दिया जाना ।
काँप उठी वैराग्य ज्योति
जल उठा ज्ञान दीप प्रकाशित हो गया कमल वन बदल गया जीवन दर्शन उठे कदम उस ओर जिस डगर पर चलकर चूक जाता है मृत्यु का छोर मिल जाता है चिंतन तत्व
शाश्वत अमरत्न |
शुद्ध संस्कार प्रेरित
इस भव्य आत्मा ने
पूज्य गुरुवर्या खरतरगच्छ प्रवर्तिनी श्री ज्ञानश्रीजी महाराज के
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