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खण्ड २ | श्रद्धार्चन : काव्याञ्जलि
श्री चरणों में पहुँच कर धारण कर लिया आर्या का सुवेष नाम हुआ सज्जनश्री। प्रारम्भ हुआ नव्य जीवन सूत्रों का पारायण आगमों का मन्थन छंट गया कषाय निकल पड़ा अमृत। जिसे पान कर लुप्त हुयी विषमता बस छा गयी जीवन में समता ही समता । अब उदारमना साध्वीश्री पद यात्राएँ करती हुयी लगी लुटाने दोनों हाथों से स्व-स्वभाव भूली दिग्भ्रमित आत्माओं को ज्ञान पीयूष सत्यामृत । तप से स्वाध्याय से परिषहों को सहन कर शुभ्र बना आचरण सिंह लगन में दीक्षित सिंह-सा निर्भीक मन दहाड़ उठा, गरज उठा क्षुद्रता पर निकृष्टता पर प्रान्त-प्रान्त में छायी अज्ञान की जड़ता पर। हे शास्त्र मर्मज्ञा साध्वी शिरोमणि, प्रवर्तिनी तुम चलती रही, चलती रही
संयम के कठोर पथ पर सतत अनवरत लिखती रहीं स्वानुभव को समझाती रही जिनवाणी को गाती रही वीतरागियों की पावन गाथाओं को। और आज भी अस्सी वर्ष की इस आयु में भी कहाँ अन्त है उस शौर्य का ? व्याधियों से जूझती हुयी देह आत्मा के भेद को समझती हुयी जल रही हो. धर्म की मशाल-सी । हे पुण्यश्लोका तुम वेद की ऋचाओं-सी मंत्र के वीजाक्षरों-सी सूत्रों की चूलिकाओं-सी अहिंसा की प्रशान्त धुरी-सी संसारविरक्ता खरतरगच्छ की प्रदाता कल्पवृक्ष-सी। हे साधना सौम्या! हम अज्ञानी क्या करेंगे तुम्हारा अभिवन्दन जिस दुर्लभ संयम को स्वयं देव करें नमन मैं तो बस भावभीनी श्रद्धा से तुम्हारे युग्म चरणों में करती कोटि-कोटि वन्दन ।
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