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________________ खण्ड ४ : धर्म, दर्शन एवं अध्यात्म-चिन्तन जब यह अनुभव आता है, तब अकस्मात् आता है । अचानक ही चित्त विचार-तरंगों से रहित होकर शान्त हो जाता है, देह का भान जाता रहता है एवं आत्मप्रकाश झिल मिलाने लगता है । मेघों से आच्छादित अँधेरी रात में जैसे अनजाने मार्ग पर खड़े पथिक को अचानक दमकती बिजली की कौंध में अपने आस-पास का दृश्य दिखाई दे जाता है। उसी प्रकार, इस अनुभव से साधक को एक पल में ही आत्मा के निश्चय शुद्धस्वरूप का 'दर्शन' हो जाता है, अपने अकल, अबद्ध, शाश्वत, शुद्धस्वरूप का अनुभव होता है-इसकी प्रतीति मिलती है। श्रत की तरह यहाँ क्रमशः ज्ञान की अभिवद्धि नहीं होती, किन्त क्षणभर में ही पूर्व के अज्ञान का स्थान आत्मा का निर्धान्त ज्ञान ले लेता है । वर्षों के शास्त्र अध्ययन से प्राप्त हो, उससे अधिक स्पष्ट, निश्चित एवं सूक्ष्म ज्ञान उन अल्प क्षणों में प्राप्त हो जाता है। यह अनुभव अत्यन्त सुखकर होता है। उस समय वचनातीत शान्ति मिलती है, किन्तु अकेली शान्ति अथवा आनन्द के अनुभव को ही स्वानुभूति का लक्षण नहीं कहा जा सकता । चित्त थोड़ा भी स्थिर हुआ कि शान्ति एवं आनन्द का अनुभव तो होगा, किन्तु यहाँ ज्ञाता एवं ज्ञय का भेद नहीं रहता, और ध्याता ध्येय के साथ एकाकार बना रहता है, परमात्मतत्त्व के साथ ऐक्य का अनुभव रहता है, आनन्द वचनातीत होता है, विद्यत की कौंध की भाँति एकाएक ज्ञानप्रकाश प्रवाहित हो उठता है, एवं साधक को अपने समक्ष विश्व का रहस्य खुल गया-सा प्रतीत होता है एव उसे यह ज्ञान, विश्वास तथा निश्चय हो जाता है कि भविष्य अन्धकारमय नहीं, किन्तु उज्ज्वल है। इस विश्वास के साथ मृत्यु का भय ही विनष्ट हो जाता है । मृत्यु से परे स्वयं का शाश्वत अस्तित्व है, इसकी उसे अंचल प्रतीति मिलती है एवं उसके अन्तर् में समस्त विश्व का आलिंगन करने वाला प्रेम उमड़ पड़ता है । ये है अपरोक्षानुभूति के समय के कुछ विशेष अनुभव । डॉ० सर्वपल्ली राधाकृष्णन् के शब्दों में कहा जाय तो "इस दर्शन-साक्षात्कार के साथ निरवधि आनन्द आता है, बुद्धि की पहुँच के परे का ज्ञान उपलब्ध हो जाता है, स्वयं जीवन से भी तीव्रतर संवेदन होता है, एवं अपार शान्ति तथा आनन्द का अनुभव होता है "इस शाश्वत तेज के स्मरण का स्थायी असर रह जाता है, एवं ऐसा अनुभव फिर से प्राप्त करने को मन छटपटाता है।" स्वानुभूति की अभिव्यक्ति यहाँ यह याद रहे कि शब्द द्वारा अनुभव के विषय में हम जो कुछ जान सकते हैं, वह अनुभव का अपने मन से बनाया गया चित्र है । अनुभव के समय ज्ञाता-ज्ञेय का भेद करने वाला मन सोया हुआ रहता है, एवं आत्मा ज्ञय के साथ तदाकार रहती है। बाद में मन जागृत होता है, तब अनुभव के समय जो हुआ, उसको याद करने का वह प्रयास करता है, जिसमें वह कठिनता से ही सफल होता है। जागृत होने के बाद चित्त अनुभव को स्मरण करे एवं उसका वर्णन दूसरों के सामने प्रस्तुत करे, उसमें १. डॉ० राधाकृष्णन 'धर्मोनु मिलन,' पृ० २६७ (भारतीय विद्या भवन, बम्बई-७) खण्ड ४/६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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