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खण्ड ३ : इतिहास के उज्ज्वल पृष्ठ
जिनउदयसागरसूरिजी का गृहस्थावस्था का नाम था देवराज भंडारी । इनके माता-पिता का नाम था श्री सुल्तानकरणजी भंडारी एवं श्रीमती जतन देवी । इनका जन्म सं० १९६० फाल्गुन वदि अमावस को सोजत में हुआ था। विक्रम संवत् १९८८ माघ सुदि पांचम को बीकानेर में २८ वर्ष की अवस्था में ही वीर पुत्र आनन्दसागरजी (जिनआनन्दसागरसूरि) के पास दीक्षा ग्रहण कर उनके शिष्य बने । दीक्षा नाम मुनि उदयसागर रखा गया था । १३ जून १९८२ को जयपुर नगर में श्री संघ ने आपको आचार्य पद से विसूषित किया। तभी से आप जिनउदयसागरसूरि के नाम से प्रसिद्ध हैं और तभी से इस सुख- . सागरजी महाराज के समुदाय के गणनायक पद का भार संभाला और समुदाय का नेतृत्व कर रहे हैं।
आप गूजराती, हिंदी, अंग्रेजी, उर्दू आद्वि भाषाओं के अच्छे जानकार हैं। आपका विचरण क्षेत्र मुख्यतः राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, बिहार, बंगाल और उत्तर प्रदेश रहा है । आपने अनेक स्थलों पर प्रतिष्ठा, अंजनशलाका, आदि महोत्सव कराये हैं । आपके नेतृत्व में कई उद्यापन भी हुए हैं । कई स्थानों पर नई दादाबाड़ियों का निर्माण और कई का जीर्णोद्धार भी करवाया है। कई पुस्तकों का पुनर्प्रकाशन भी करवाया है जिसमें पंचप्रतिक्रमण सूत्र सविधि आदि मुख्य हैं । आप सरल स्वभावी हैं । वर्तमान में आप अपने शिष्यों-उपाध्याय महोदयसागरजी, पूर्णानन्दसागरजी, पीयूषसागरजी के साथ सिवनी में विराज रहे हैं।
(१७) जिनकान्तिसागरसूरि सन् १९८२ में जयपुर में जो दूसरे आचार्य बने वे थे जिनकान्तिसागरसूरि । इनका जन्म विक्रम संवत १९६८ माघ बदि एकादशी को रतनगढ़ में हुआ था। आपके पिता का नाम मुक्तिमलजी सिंघी था और माता का नाम था सोहनदेवी । आपका जन्म था तेजकरण/तोलाराम । रतनगढ़ में तेरापंथी संप्रदाय का प्राचुर्य एवं प्रभाव होने के कारण इनके माता-पिता तेरापंथी परम्परा को ही मानते थे । तत्कालीन तेरापंथी समुदाय के अष्टम आचार्य कालूगणि के पास इन्होंने अपने पिता के साथ ही (तेजकरण) दस वर्ष की बाल्यावस्था में ही दीक्षा ग्रहण की । दीक्षा संवत था १९७८ ।
तेरापंथ में दीक्षित होने पश्चात् इन्होंने शास्त्र अध्ययन किया। प्रखर बुद्धि तो थी ही, साथ ही चितन भी प्रौढ़ था । फलतः मूर्तिपूजा, मुखवस्त्रिका, दया, दान आदि के सम्बन्ध में तेरापंथ संप्रदाय की मान्यताएँ इन्हें अशास्त्रीय लगीं और तेरापंथ संप्रदाय का त्याग कर संवत् १९८६ ज्येष्ठ सूदि तेरस के दिन अनूप शहर में गणनायक हरिसागरजी महाराज (जिनहरिसागरसूरिजी) के करकमलों से भागवती दीक्षा अंगीकार की। तभी से आप मुनि कान्तिसागरजी के नाम से प्रसिद्ध हुए।
आप प्रखर वक्ता थे । वाणी में ओज था । श्रोताओं को मंत्र मुग्ध करने की आप में कला थी। भाषणों में कुरान शरीफ, बाइबल, गीता और जैन साहित्य का पुट देते हुए सुन्दर प्रवचन देते थे। फलतः आपकी ख्याति बढ़ती ही गई ।।
आगम ज्ञान के अतिरिक्त आप संस्कृत, प्राकृत, हिंदी, गुजराती, मारवाड़ी का भी अच्छा ज्ञान रखते थे, साथ ही कवि भी थे । हिन्दी और राजस्थानी भाषा में आपने स्तवन साहित्य और रास साहित्य की कई रचनाएँ की हैं। जिनमें से प्रमुख हैं :-अंजनारास, मयणरेहारास, प्रतिभाबहार, पैंतीस बोल विवरण आदि ।
आपका विवरण क्षेत्र राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, उत्तरप्रदेश, बिहार, बंगाल, हरियाणा, जम्मू कश्मीर, मध्यप्रदेश, कर्नाटक, केरल और तमिलनाडु रहा ।
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