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खरतरगच्छ की संविग्न साधु परम्परा का परिचय : मंजुल विनयसागर जैन
पण्डित मणिसागरजी ने भी बुलेटिनों के द्वारा उनका सचोट उत्तर दिया और शास्त्रार्थ के लिये आह्वान किया । सप्रमाण सचोट उत्तर मिलने के कारण तपागच्छ के आचार्य उत्तर न दे सके और न शास्त्रार्थ के लिये आगे ही आये । इसी प्रकार इन्दौर में जब सागरानन्दसूरि और विजयधर्मसूरि के बीच देव द्रव्य का विवाद चल रहा था तब पण्डित मणिसागरजी ने विजयधर्मसूरि को भी शास्त्रार्थ के लिये ललकारा और इसी समय इसी प्रसंग पर उन्होंने 'देव द्रव्य निर्णय' नामक पुस्तक लिखी । इन्दौर में ही मुखस्त्रिका के प्रसंग को लेकर स्थानकवासी समाज के प्रमुख विद्वान् और प्रसिद्ध वक्ता मुनि चौथमल जी को भी शास्त्र चर्चा के लिये आमन्त्रित किया, किन्तु वे भी समझ न आये । अन्त में पण्डित मणिसागर जी 'मुख पर मुखवस्त्रिका बाँधना अशास्त्रीय है ।' का प्रतिपादन करने वाली 'आगमानुसार मुंहपत्ती का निर्णय' पुस्तक प्रकाशित की। इसी प्रकार जब मुनि ज्ञानसुन्दरजी ने 'साध्वियों को व्याख्यान देने का अधिकार नहीं है' पुस्तिका लिखी तो इसके प्रत्युत्तर में शास्त्रीय प्रमाणों के आधार पर इन्होंने पुस्तिका लिखी थी 'साध्वी व्याख्यान निर्णय ।'
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इनके उपदेश से कोटा में श्री हिन्दी जैनागम प्रकाशक सुमति कार्यालय और जैन प्रिंटिंग प्रेस की स्थापना हुई । कल्पसूत्र आदि पाँच-छह आगमों के हिन्दी अनुवाद भी प्रकाशित हुए ।
सम्वत् १९६८ का इनका चातुर्मास जयपुर में हुआ था और यहीं पर इन्होंने सुखसागरजी म. के समुदाय में सर्वप्रथम उपधान तप करवाया था । सम्वत् १६६६ में ही श्री कल्याणमलजी गोलेच्छा को बड़ी कठिनता से समझा कर उनकी पत्नी को नथमलजी के कटले में ही बड़े महोत्सव के साथ दीक्षित किया था और दीक्षा नाम सज्जनश्री जी रखा था, जो कि इस समय प्रवर्तिनी पद को सुशोभित कर रही हैं और जिनका इस समय अभिनन्दन महोत्सव होने जा रहा हैं ।
सम्वत् २००० का आपका चातुर्मास बीकानेर में हुआ । यहाँ भी उपधान तप करवाया, उपधान तप के मालारोपण महोत्सव के प्रसंग पर आचार्य जिनऋद्धिसूरिजी म. ने सम्वत् २००० पौष वदी एकम को उनको आचार्य पद से सुशोभित किया था ।
सम्वत् २००७ माघ वदी अमावस ६ फरवरी १९५१ को अकस्मात् ही आपका स्वर्गवास
हो गया ।
उनके प्रथम शिष्य थे मुनि विनयसागर जो बाद में गृहस्थ हो गये । उनके एक शिष्य और थे श्री गौतमसागरजी और गौतमसागरजी के शिष्य अस्थिर मुनिजी । इन दोनों का ही स्वर्गवास हो चुका है ।
(१६) जिन उदयसागरसूरि
श्री जनकवीन्द्रसागर सूरिजी के स्वर्गवास के पश्चात् समुदाय का भार गणि श्री हेमेन्द्रसागर जी के कन्धों पर आया । वे उसे सुचारु रूप से कार्यान्वित करते रहे। उनका भी सूरत में स्वर्गवास हो जाने के पश्चात् समाज में यह अभाव विशेष रूप से खलने लगा कि गच्छ में कोई आचार्य ही नहीं है । फलतः अखिल भारतीय जैन श्वेताम्वर खरतरगच्छ महासंघ ने निर्णय लिया कि अब आचार्य पद रिक्त न रखकर दोनों ही मुनि गणों को आचार्य बना दिया जाय। फलतः सन् १९८२ में जयपुर में आचार्य पद महोत्सव हुआ और संघ ने एक साथ दो आचार्य बनाये – जिनउदयसागरसूरि एवं जिनका न्तिसागरसूरि । आप दोनों का संक्षिप्त परिचय निम्न प्रकार है :
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