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________________ धर्म-साधना के तीन आधार : उपााचार्य श्री देवेन्द्र मुनि दया का हार्द आचार्य जिनसेन के दृष्टिकोण के समर्थन में आचार्य पद्मनन्दी ने बड़ी साफ-साफ बात कही है और दया को धर्म का मूल बतलाते हुए उसकी प्रशंसा भी की है। वे कहते हैं-'प्राणिदया' धर्मरूपी वृक्ष की जड़ है, सारे व्रतों में मुख्य व्रत है, सम्पत्ति का और गुणों का भी भण्डार है। इसलिए हर प्राणी को अपने हृदय में दया को धारण करना चाहिए । जो ऐसा करते हैं, वस्तुतः वे विवेकवान हैं। यह सच है कि जिनेन्द्र भगवान का उपदेश करुणारूपी अमृत से लबालब भरा है। और उसका प्रथम स्रोत दया-करुणा प्रेरित ही है। जो इस धर्म के वास्तविक अनुयायी हैं, उनके चित्त में करुणा तो अवश्य ही होनी चाहिए। क्योंकि प्रत्येक जिन का धर्मोपदेश देने के पीछे यह आशय रहता आया हैजिस मार्ग साधन से मैंने स्वयं की आत्मा को सांसारिक बन्धनों से निकालकर यहाँ तक पहुँचाया है, उसी तरह, संसार के तमाम दुःखी जीव भी मेरे द्वारा अपनाये गये रास्ते पर चलें और स्वयं को मुक्त बनावें। क्योंकि जिनेन्द्र भगवान की आत्मा, 'जिन' बनने के साथ ही करुणा के, दया के सागर को अपने आप में पूरा का पूरा समेट लेती है। यानी, उनमें दया का परिपूर्ण स्वरूप अवतरित हो जाता है। फिर भला वे दुःखी-दीन जनों को देखकर, द्रवित क्यों नहीं होंगे? इसलिए, उनके द्वारा जो भी उपदेश शिष्यों को दिया जाएगा, उसके एक-एक शब्द में करुणा का अमृत-सिन्धु भरा मिलेगा। जरूरत है, उस करुणामृत की तलाश की, पहचान की। यह दया या करुणा किसी भी प्राणी में बाहर से नहीं आती। यह तो उसके भीतर रहने वाला एक ऐसा तत्त्व है, जो उससे कभी भी अलग रह ही नहीं सकता। क्योंकि यह करुणा या दया, न तो इस धरती पर पैदा होती है, और न ही किसी भौतिक पदार्थ में से उसे ढूँढ़ कर निकाला जा सकता है । यह तो 'चेतना' का अपना एक मौलिक गुण धर्म है। अनुकम्पा करुणा/दया का समानार्थक एक और शब्द, जैनधर्म व दर्शन में प्रयोग किया गया मिलता है। वह है-'अनुकम्पा' । इस शब्द का अर्थबोध भी आचार्यों ने अलग-अलग ढंग से दिया है । बहत्कल्पसूत्रवृत्ति में आचार्य मलगिरि ने लिखा है "अनु-पश्चात् दुःखितसत्वकम्पनादनन्तरं यत्कम्पनं सा अनुकम्पा” (१३२०) । आचार्य हेमचन्द्र ने योगशास्त्र स्वोपज्ञवृत्ति में लिखा है-दुःखियों को निहार कर बिना पक्षपात के दुःख को दूर करने की इच्छा अनुकम्पा है (२/१५)। ये ही भाव त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र में भी अभिव्यक्त हुए हैं। (१/३/६१५-६१६) तीन भेद अनुकम्पा के भगवती आराधना में अनुकम्पा को तीन भागों में विभाजित कर दिया गया है। ये विभाग हैंधर्मानुकम्पा, मिश्रानुकम्पा और सर्वानुकम्पा । संयमी मुनियों पर दया करना 'धर्मानुकम्पा' है। यह धर्मानुकम्पा जब किसी व्यक्ति के अन्तः करण में उत्पन्न होती है, तब वह विवेकवान सद्गृहस्थ श्रमणों-निर्ग्रन्थों को योग्य अन्न, जल, निवास, १. मूलं धर्मतरोराद्या व्रतानां धाम सम्पदाम् । गुणानां निधिरित्यंगि दया कार्या विवेकिभिः ।। -पद्मनंदि पंचविंशतिका, ३८ २. प्रश्नव्याकरण संवरद्वार । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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