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________________ सम्यक् आचार की आधारशिला सम्यक्त्व... : साध्वी सुरेखाश्री जी इस प्रकार आचारांग में सम्यक्त्व का अर्थ है। त्रिपिटकों में सम्यग्दृष्टि को सम्माद्दिट्ठी कहा सम्यक्आचरण पर आधारित बताया है। किन्तु गया तथा सम्यग्दृष्टि श्रद्धायुक्त होता है। आर्य अन्य आगमों व आगमेतर साहित्य में सम्यक्त्व के अष्टांगिक मार्ग, शिक्षात्रय, आध्यात्मिक विकास की प्रचलित अर्थ व स्वरूप में भिन्नता है। अपेक्षाभेद पाँच शक्तियाँ और पाँच बल सभी में श्रद्धा का स्थान से, निश्चय-व्यवहारनय से उसमें समानता भी प्रथम माना है। इसी मोक्षमार्ग के साधन रूप श्रद्धा द्योतित होती है । आचारांग में आत्मोपम्य की को सांख्यदर्शन एवं योगदर्शन ने विवेकख्याति कह भावना से ओतप्रोत, अहिंसा, विवेक, अनवद्य तप से कर सम्बोधित किया है । वेदान्तदर्शन में ज्ञान में ही युक्त चारित्र को सम्यक्त्व के अर्थ में व्यापक दृष्टि- श्रद्धा को अन्तनिहित किया गया है। कोण से अनुलक्षित किया है । क्योंकि उपरोक्त गुणों की सुरक्षा भी पूर्णतया मुनिजीवन में ही सम्भव महाभारत में श्रद्धा को सर्वोपरि माना है तथा है। जबकि सूत्रकृतांग के द्वितीय श्रु तस्कन्ध में श्रद्धा ही सब पापों से मुक्त कराने वाली है ऐसा संयती मुनि के साथ व्रतधारी श्रावकों का भी मान्य किया है। गीता में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को सम्यग्दृष्टि होना बताया गया है। संयती मुनि व श्रद्धा धारण करने का उपदेश दिया और कहा कि श्रावक श्रद्धापूर्वक धर्मानुष्ठान करते हैं, यत्र-तत्र श्रद्धावान् ही ज्ञान प्राप्त कर सकता है, वही संयती उसका भी उल्लेख मिलता है। किन्तु सम्यक्त्व के होता है । तदनन्तर वह आत्मा परब्रह्म को प्राप्त हो स्वरूप ने श्रद्धा रूपी बाना यहाँ धारण नहीं किया। सकती है । ईसाई धर्म व इस्लाम धर्म में भी श्रद्धा उत्तराध्ययन सूत्र में सर्वप्रथम सम्यक्त्व को तत्व को प्राथमिकता दी है। तात्पर्य यह है कि सर्व धर्म श्रद्धा स्वीकार किया व तत्वों का भी निर्देशन किया दर्शनों ने श्रद्धा/सम्यग्दर्शन को मोक्ष का हेत समवेत गया है। अन्य आगमों में इसके भेद, प्रकार, अति- स्वर से स्वीकार किया है। चार, अंग, लक्षण आदि का कथन किया गया। आगमेतर साहित्य में तत्त्वार्थ सूत्र में वाचकवर्य आध्यात्मिक दृष्टि से तो सम्यग्दर्शन का उमास्वाति ने सम्यग्दर्शन का स्वरूप स्पष्ट रूप से स्थान महत्वपूर्ण है ही, किन्तु लौकिक जीवन निर्धारित किया। उत्तराध्ययन सूत्र की अपेक्षा में भी इसका महत्व कम नहीं । जैन मान्यतानुसार तत्त्वार्थ सूत्र अधिक प्रकाश में आया । उसका कारण इसका हम यथार्थ दृष्टिपरक अर्थ करते हैं तो यह रहा कि यह सभी जैन सम्प्रदायों को ग्राह्य है। भी इसका महत्वपूर्ण स्थान सिद्ध होता है। क्योंकि तत्त्वार्थ सूत्र के टीकाकारों ने भी इसकी विशद चर्चा यह जीवन के प्रति ही एक दृष्टिकोण हो जाता है। की। सम्यक्त्व के पर्यायवाची शब्द सम्यग्दर्शन, अहिंसा अनेकान्त और अनासक्त जीवन जीने की श्रद्धा, रुचि, प्रतीति, विश्वास भी व्यवहृत होते हैं। कला इससे प्राप्त होती है। चूंकि जीवनदृष्टि के सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान की उत्पत्ति में किसी ने अनुसार ही व्यक्तित्व व चरित्र का निर्माण होता ज्ञान को पश्चात्वर्ती माना तो किसी ने सहभागी है, दृष्टि के अनुसार ही जीवन सृष्टि निर्मित होती माना। तत्त्वार्थ के पूर्व नंदीसूत्र में देववाचक गणि है। ऐसे उदाहरणों से इतिहास भरा है। अतः यह ने कहा कि सम्यग्दृष्टि का श्र त ही सम्यक्च त है अपने आप पर निर्भर है कि हमको जैसा बनना है अन्यथा वह मिथ्याश्र त है। दिगम्बर साहित्य में उसी के अनुरूप हम अपनी जीवनदृष्टि बनाएँ । भी सम्यक्त्व का यही स्वरूप स्वीकृत किया है। क्योंकि जैसी दृष्टि होती है, वैसा ही उसके जीवन जैनेतर दर्शनों में बौद्धदर्शन तो श्रमण भगवान जीने का ढंग होता है और जैसा उसके जीने का महावीर के समकालीन व सन्निकट रहा है। अतः ढंग होता है, उसी स्तर से उसके चरित्र का निर्माण इनमें एक दूसरे का प्रतिबिम्ब झलकना स्वाभाविक होता है और चरित्र के अनुसार ही उसके व्यक्तित्व For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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