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________________ खण्ड १ | जीवन ज्योति श्रीगोरूमलजी ने अपने बड़े पुत्र चौथमलजी का विवाह चौधाणी (नाहटा) परिवार में किया तथा छोटे पुत्र गणेशमलजी का विवाह बोथरा परिवार में किया । गणेशमलजी की प्रथम पत्नी का देहान्त हो जाने पर उनका दूसरा विवाह भूरामलजी चोरडिया की बहिन से हुआ। गणेशमलजी का तीसरा विवाह राजगढ़ (सादुलपुर) में बेगवानी परिवार में हुआ। बड़े भाई चौथमलजी के कोई सन्तान नहीं हई । गणेशमलजी की तृतीय पत्नी से तीन सन्तानें हुई--एक कन्या और दो पुत्र । कन्या का नाम हुलासाबाई रखा गया। दोनों पुत्रों का नाम क्रमशः तेजकरण और गुलाबचन्द रखा गया। हुलासाबाई का विवाह उस समय के ख्यातिनामा ढड्ढा परिवार में श्रीबहादुरमलजी ढड्ढा से हुआ । बहादुरमलजी अधिक आयु नहीं पा सके । वे २५ वर्ष की अवस्था ही में अपनी पत्नी श्रीमती हुलासाबाई तथा पत्ररत्न श्रीउमरावमल को छोड़कर स्वर्गवासी हो गये। उमरावमलजी को लूनिया परिवार में दीपचन्द कहते थे। ___ श्रीगणेशमलजी के प्रथम पुत्र तेजकरणजी तथा उनकी पत्नी का देहान्त भी युवावस्था ही में हो गया। तेजकरणजी की पत्नी लनवाल परिवार से थी। इसी पीढ़ी में श्रीगणेशमलजी के द्वितीय पुत्र गुलाबचन्दजी थे । श्रीगणेशजी की वंश बेल श्रीगुलाबचन्दजी से ही फली फूली । उनके द्वारा लगायी गयी वंश-पौध आज वट वृक्ष बनकर लहलहा रही है। इस वंश ने धन, सम्पन्नता, धर्मनिष्ठा, सामाजिक प्रतिष्ठा, लोक व्यवहार, विदेशों में व्यापारिक सफलता एवं ख्याति के अनेक कीर्तिमान स्थापित किये हैं। इसी वंश वृक्ष की एक उज्ज्वल मणि हैं-आगमज्ञा, विदुषीवर्या आर्यारत्न प्रवर्तिनी श्रीसज्जनश्रीजी महाराज साहब । स्वनामधन्या श्रीसज्जनश्रीजी म. सा. अपनी ज्ञानसुधा से अध्यात्म पिपासु भक्तजनों के हृदयों को निरन्तर आप्लावित करने वाले श्रीगुलाबचन्द जी की पुत्री हैं जो अपने त्याग, तप, धर्मनिष्ठा तथा संयम-साधना से पीहर और ससुराल दोनों ही पक्षों का नाम उज्ज्वल कर रही हैं । श्री गुलाबचन्दजी की बाल्यावस्था आपका जन्म संवत् १९३४ में जयपुर में हुआ । नीतिनिष्ठा और धर्माचरण आपको विरासत में प्राप्त हुए थे। पिताश्री गणेशमलजी की ईमानदारी और धर्मनिष्ठा का प्रभाव गुलाबचन्दजी के संस्कारों में भी आया । धार्मिक आचरण एवं साधु-सन्तों की सेवा दादाजी श्री गोरूमलजी के समय में भी परिवार के मुख्य कर्तव्य माने जाते थे । सं० १८८५ में तेरापंथ धर्मसंघ के चतुर्थ आचार्य श्रीमद् जयाचार्य ने अपना चातुर्मास जयपुर में किया था । उस समय ५२ व्यक्तियों ने तेरापंथ की गुरु धारणा ग्रहण की । गोरूमल जी उन्हीं में से एक प्रमुख व्यक्ति थे। धर्म की इस अजस्र धारा में ही पल्लवित-पुष्पित हुई थी श्री गुलाबचन्द जी की मानस वल्लरी । कल्पना-शक्ति और भावनामय उड़ान आपको ईश्वर प्रदत्त थी। बाल्यकाल ही से आप साधु-साध्वियों की सेवा में अधिक से अधिक समय दिया करते थे। धर्मचर्चा में आपका मन खूब रमता था । सुन्दर-सरस और तात्त्विक ढालें तो आप १७ वर्ष की आयु में ही लिखने लगे थे। ___ आप बचपन से ही मृदुभाषी थे । भावुक होने के कारण आपने कभी किसी को कटुवाणी से कष्ट नहीं पहुंचाया । सबके सहयोगी एवं सेवाभावी आप बाल्यकाल ही से थे। आपका सांसारिक कार्यों में कम ही मन लगता था । खण्ड ११३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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