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________________ खण्ड ३ : इतिहास के उज्ज्वल पृष्ठ आचार्य जिनेश्वर न केवल वाक्चातुर्य और शास्त्रचर्चा के ही आचार्य थे, अपितु लेखनी के भी प्रौढ़ आचार्य थे । आपने प्रमालक्ष स्वोपज्ञवृत्ति सहित, अष्टक प्रकरण टीका, [ रचना संवत् १०८० ] चैत्यवन्दनक [ रचना संवत् १०६६ ], निर्वाण लीलावति कथा [ रचना संवत् १०६२ ], कथा कोष प्रकरण स्वोपज्ञवृत्ति सहित [ रचना संवत् १९०८ ], पंचलिंगी प्रकरण, षट् स्थान प्रकरण आदि दार्शनिक, सैद्धान्तिक एवं कथा साहित्य की रचनाएँ की थीं। आचार्य जिनेश्वरसूरि का स्वर्गवास कब और कहाँ हुआ, निश्चित नहीं है, किन्तु आपकी सम्वत् १९०८ में रचित कथाकोष स्वोपज्ञवृत्ति प्राप्त है, अतः इसके बाद ही आपका स्वर्गवास हुआ होगा । (३) जिनचन्द्रसूरि आचार्य जिनेश्वर के पश्चात् उनके पट्ट पर जिनचन्द्रसूरि हुए। आपके सम्बन्ध में कोई इति वृत्त प्राप्त नहीं है । इसमें तो कोई सन्देह नहीं कि आप बहुश्र तज्ञ गीतार्थं थे । आपने अपने लघु गुरुबन्धु गीतार्थ, विख्यात कीर्तियुक्त, अभयदेवसूरि की अभ्यर्थना से 'संवेगरंगशाला' नामक प्राकृत ग्रन्थ की १०,०५० श्लोक बृहत् परिमाण में संवत् १९२५ में रचना पूर्ग की । यह ग्रन्थ मूल, गुजराती एवं हिन्दी अनुवाद भी प्रकाशित हो चुके हैं। अनुवादकों ने गच्छ - कदाग्रह से इनको तपागच्छ का आचार्य लिखा है, जो नितान्त भ्रामक है, क्योंकि इसकी रचना ११२५ में हुई और तपागच्छ की उत्पत्ति १२८४ में हुई संवेगरंगशाला के अतिरिक्त श्रावकविधि-दिनचर्या, धर्मोपदेश काव्य, क्षपकशिक्षा प्रकरण आदि छोटी-मोटी सात रचनाएँ प्राप्त हैं । इनका स्वर्गवास कब हुआ, इस सम्बन्ध में कोई संकेत प्राप्त नहीं है । (४) अभयदेवसूरि ७ जिनचन्द्रसूरि के पट्टधर गच्छनायक के रूप में हमें आचार्य अभयदेवसूरि के दर्शन होते हैं । आपके प्रारम्भिक जीवन वृत्त के सम्बन्ध में हमें केवल प्रभावकचरित में ही किंचित् उल्लेख प्राप्त होते हैं । इसके अनुसार आचार्य जिनेश्वरसूरि सम्वत् १०८० के पश्चात् जाबालिपुर [जालौर ] से विहार करते हुए मालवा प्रदेश [ मध्य भारत ] की तत्कालीन प्रसिद्ध राजधानी धारानगरी पधारे । इसी नगरी में श्रेष्ठि महीधर रहते थे । धनदेवी इनकी पत्नी का नाम था और अभयकुमार इनका पुत्र था । आचार्य जिनेश्वर के प्रवचनों से प्रबुद्ध होकर अभयकुमार ने दीक्षा ग्रहण की और दीक्षा नाम इनका हुआ - अभयदेव मुनि । आचार्य जिनेश्वर ने आपकी योग्यता और प्रतिभा देखकर आचार्य पद प्रदान किया और वे आचार्य अभयदेवसूरि के नाम से प्रसिद्धि को प्राप्त हुए । इनका सर्वप्रथम टीका ग्रन्थ ११२० में रचित प्राप्त है । उसमें स्वयं के लिए सूरि शब्द का प्रयोग किया है, अतः यह निश्चित है कि १९२० से पूर्व ही ये आचार्य बन चुके थे । श्वेताम्बर जैन साहित्य में जो ग्यारह अंग माने जाते हैं, उनमें से केवल आचारांग सूत्र और सूत्रकृतांग सूत्र पर आचार्य शीलांक द्वारा रचित टीकाएँ प्राप्त थीं । शेष नव अंगों पर कोई विवेचन प्राप्त नहीं था । मूल पाठ भी लेखकों की अशुद्ध परम्परा के कारण अशुद्धतर होते जा रहे थे । वाचना-भेदों की बहुलता मूल आगमों को कूट आगम सिद्ध कर रहे थे, जो कुछ वाचन मनन की प्रणाली थी, वह कूट पाठों की बहुलता से नष्ट होती जा रही थी । ऐसी परिस्थिति देखकर अभयदेवसूरि ने अपनी समयज्ञता का परिचय दिया और अपनी बहुश्र तज्ञता का उपयोग समाज के लिए हो, अतः उन्होंने शेष नव अंगों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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