SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 308
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ खरतर गच्छ का संक्षिप्त परिचय : महोपाध्याय विनयसागर जी पर विवेचन लिखना प्रारम्भ किया। इस निर्माण कार्य हेतु वे प्रायः कर ११२० के ११२८ तक अनहिलपुर पाटण में रहे । नव अंगों पर सम्यक् प्रकार से विवेचन लिखा । ११२४ में धोलका रहे और वहाँ पंचाशक पर टीका लिखी। इन टीकाओं का संशोधन सुविहित साधुओं से न कराकर उन्होंने तत्कालीन चैत्यवासियों में प्रमुख आचार्य द्रोणाचार्य से अनुरोध किया कि मेरी लिखी हुई टीकाओं का आप संशोधन कर दें। द्रोणाचार्य ने भी विशाल हृदय का परिचय दिया और प्रतिपक्षी का शिष्य न समझकर एक गीतार्थ का श्लाघ्य, प्रशस्य और सर्वोत्तम कार्य समझकर अभयदेवरचित समग्र टीकाओं का संशोधन कर उस पर प्रामाणिकता की मोहर लगा दी। टीकाओं की रचना करते समय अहर्निश जागरण और अत्युग्रतप के कारण आचार्य का शरीरव्याधि से ग्रस्त हो गया । व्याधिग्रस्त अवस्था में प्रवास करते हुए खम्भात पधारे और सेढ़ी नदी के किनारे 'जयतिहअणवर' नामक नवीन स्तोत्र के द्वारा भगवान् पार्श्वनाथ की स्तुति की, उसी समय भगवान् पार्श्वनाथ को मूर्ति भूमि से स्वयमेव प्रकट हुई और वही मूर्ति खम्भात में नूतन मन्दिर बनवाकर प्रतिष्ठित की गई । तभी से यह स्थान स्तम्भनक पार्श्वनाथ तीर्थ के नाम से प्रसिद्ध है। जिनपालोपाध्याय और सुमतिगणि इस घटना को नवांगी टीकाओं की रचना के पूर्व मानते हैं, जबकि प्रभावकचरितकार टीका रचना के बाद मानते हैं। कुछ भी हो, यह निश्चित है कि स्तम्भनक पार्श्वनाथ तीर्थ की स्थापना आचार्य अभयदेवसूरि के द्वारा हुई थी। आचार्य अभयदेवसूरि की गणना आप्त टीकाकारों में की जाती है। ये परम गीतार्थ तो थे ही, अपितु प्रौढ़ व्याख्याता भी थे। इनके द्वारा निर्मित पंचाशक टीका, षट्स्थान भाष्य, प्रज्ञापना तृतीय पद संग्रहणी, पंच निर्ग्रन्थी प्रकरण, आराधना कुलक, आगम अष्टोत्तरी, नवपद प्रकरण भाष्य, सत्तरी भाष्य, वृहद् वन्दनक भाष्य, निगोद षट्त्रिंशिका, पुद्गल विंशिका एवं कई स्तोत्र प्राप्त हैं जो आपके अगाध वैदुष्य को प्रकट करते हैं। ___ आप केवल जैन आगमों के ही उद्भट विद्वान् नहीं थे अपितु तर्कशास्त्र और न्यायशास्त्र के भी प्रकाण्ड पण्डित थे। उस समय के प्रसिद्ध विद्वान् प्रसन्नचन्द्रसूरि, वर्द्धमान सूरि, हरिभद्र सूरि और देवभद्र सूरि ने आप ही के पास विद्याध्ययन किया था। आपके प्रमुख शिष्य थे~वमानसूरि, हरिश्चन्द्र सूरि और परमानन्द एवं उपसम्पदा प्राप्त जिनवल्लभ गणि। आचार्य अभयदेव का स्वर्गवास अनुमानतः ११३६ के बाद ही हुआ होगा। (५) जिनवल्लभसूरि आचार्य अभयदेव सूरि के पट्ट पर जिनवल्लभसूरि हुए। स्वप्रणीत ‘अष्टसप्ततिका' अपरनाम 'चित्रकूटीय-वीरचैत्य प्रशस्ति' के अनुसार वे कूर्चपुर गच्छीय चैत्यवासी आचार्य जिनेश्वराचार्य के शिष्य थे। ये मूलतः आशिका (हाँसी) के निवासी थे। बाल्यावस्था में ही इन्हें 'सर्पाकर्षणी और सर्पमोक्षणी दोनों विद्याएँ सिद्ध थीं। अपने गुरु के पास रहकर इन्होंने समस्त शास्त्रों का अध्ययन किया था। एक समय शास्त्रों का अध्ययन करते हुए इन्हें लगा कि हम लोगों का जीवन शास्त्रविहित नहीं है। शास्त्रविहित मार्ग पर चलने से ही कल्याण हो सकता है। ___ जिनेश्वराचार्य ने अपने शिष्य जिनवल्लभ को सैद्धान्तिक आगम ग्रन्थों का अध्ययन करवाने के लिए सुविहिताग्रणी आचार्य अभयदेव के पास भेजा। आचार्य अभयदेव ने भी जिनवल्लभ को योग्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy