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खण्ड ३ : इतिहास के उज्ज्वल पृष्ठ समझकर उदारमना होकर एक चैत्यवासी यति को सहर्ष आगमों की वाचना दी। समस्त आगमों की वाचना प्राप्त कर जिनवल्लभ कृत-कृत्य हो गये। उन्हीं के निकट रहते हुए इन्होंने ज्योतिष शास्त्र का भी विशिष्ट ज्ञान प्राप्त किया। विद्याध्ययन के पश्चात् जिनवल्लभ वापस जाने लगे तो आचार्य अभयदेव ने कहा-'वत्स, सिद्धान्त के अनुसार जो साधुओं का आचार व्रत है, वह तुम सब समझ चुके, अतः उसके अनुसार आचरण कर सको, वैसा ही प्रयत्न करना।"
जिनवल्लभ ने आचार्य के हार्दिक उद्गारों को शिरोधार्य किया। वहाँ से चलकर प्रयाण करते हुए वे मरुकोट पहुँचे और वहाँ जिनालय में विधि चैत्य के नियमानुसार श्लोक उत्कीर्ण करवाये ।
___ अपने चैत्यवासी गुरु जिनेश्वराचार्य से मिले और उनकी अनुमति प्राप्त कर वे वापस अभयदेवसूरि के पास पहुंचे और उनसे 'उपसम्पदा' ग्रहण की। उस समय इनके साथ इनके गुरुभ्राता जिनशेखर भी थे । आचार्य अभयदेव जिनवल्लभ को प्राप्त कर अत्यन्त प्रसन्न हुए, किन्तु वे स्वयं उन्हें अपने पट्ट पर आसीन न कर सके । उन्होंने इस कार्य के लिए प्रसन्नचन्द्राचार्य को संकेत किया-"जब भी अवसर मिले इन्हें आचार्य पद प्रदान कर मेरा पट्टधर घोषित करना।" किन्तु, प्रसन्नचन्द्र भी समय पर इस कार्य को सम्पन्न न कर सके और उन्होंने अपने शिष्य देवभद्राचार्य को इस कार्य के लिए संकेत किया।
जिनवल्लभगणि विहार करते हुए चित्रकुट (चित्तौड़) आये। वहाँ उन्हें रहने को चण्डिका का मठ मिला । गणिजी ने चण्डिका को प्रतिबुद्ध किया। चितौड़ में इनके तप, त्याग, निर्भीकता आदि गुणों से वहाँ इनका प्रभाव छा गया। इनके अनेकों अनुयायी बने । चित्तौड़ में रहते हुए भगवान महावीर के शास्त्रसमर्थित षट्-कल्याणकों की मान्यता को पुनः प्रचारित किया।
___ भगवान पार्श्वनाथ और भगवान महावीर के दो विधि चैत्यों का निर्माण भी उनके उपदेश से हुआ और उन्होंने सं० ११६२ में प्रतिष्ठाएँ भी करवाई।1 धाराधिपति महाराजा नरवर्मा भी इनके भक्त थे और महाराजा नरवर्मा ने चित्तौड़ के महावीर चैत्य के लिए दान भी दिया था।
संवत् ११६७ में आचार्य प्रसन्नचन्द्र के वचनों को स्मरण कर परम गीतार्य देवभद्राचार्य ने इनको चित्तौड़ बुलाया और आषाढ़ सुदी छठ के दिन इनको आचार्य पद प्रदान कर नवांगी टीकाकार अभयदेव सूरि का पट्टधर घोषित किया। बागड़ देश में विहार कर आपने १०,००० अजैनों को प्रतिबोध देकर जैन बनाया । छः मास के अल्पकाल में ही संवत् ११६७ कार्तिक बदी बारस को आपका चित्तौड़ में ही स्वर्गवास हो गया।
जिन वल्लभसूरि प्राकृत और संस्कृत भाषा के उद्भट विद्वान् थे । साथ ही वे जैन दर्शन और इतर दर्शनों के भी प्रौढ़ विद्वान थे ही। साहित्य के धुरन्धर विद्वान थे ही। इनकी विद्वत्ता के सम्बन्ध में युगप्रधान जिनदत्तसूरि तो इन्हें महाकवि माघ, कालिदास और वाक्पतिराज से भी बढ़कर मानते हैं।
इनके द्वारा विविध विषयों में निर्मित वर्तमान में ४४ कृतियाँ प्राप्त होती हैं, जिनमें से सैद्धान्तिक विषयों में सूक्ष्मार्थविचारसारोद्धार, आगमिक वस्तुविचारसार, पिण्डविशुद्धि प्रकरण,
१. चित्तौड़ में आज दोनों ही मन्दिर प्राप्त नहीं हैं। महावीर चैत्य की शिलोत्कीर्ण प्रशस्ति अष्ट सप्तति वीर चैत्य प्रशस्ति की प्रतिलिपि प्राप्त है । पार्श्वनाथ मन्दिर की प्रशस्ति का शिलापट्ट प्रशस्ति भी
प्राप्त हो गई है। खण्ड ३/२
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