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खरतर गच्छ का संक्षिप्त परिचय : महोपाध्याय विनयसागरजी
औपदेशिक ग्रन्थों में द्वादशकुलक, धर्मशिक्षा प्रकरण, द्वादशकुलक संघपट्टक आदि, काव्य ग्रन्थों में शृंगारशतक, प्रश्नोत्तरैकषष्टिशतम् आदि एवं स्तोत्र साहित्य प्राप्त है । 1
आचार्य जिनेश्वर ने चैत्यवास के विरुद्ध जो शंखनाद किया था, उसको प्रबल वेग के साथ इन्होंने आगे बढ़ाया । न केवल विरोध ही अपितु उसका वैधानिक मार्ग भी प्रस्थापित किया । यही कारण है कि आचार्य जिनेश्वर से खरतरगच्छ सुविहित पथ के नाम से प्रसिद्ध था, वह जिनवल्लभ के समय में विधि पक्ष के नाम से प्रसिद्ध हुआ ।
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पट्टावलियों के अनुसार इनके स्वदीक्षित शिष्य अधिक न थे। मुख्यतया केवल रामदेवगण का ही नाम प्राप्त होता है, जिनकी दो रचनाएँ प्राप्त हैं- सूक्ष्मार्थविचारसा रोद्धार प्रकरण टिप्पण, षडशीति टिप्पणक । इनके भक्त श्रावकों में नागौर निवासी धनदेव के पुत्र कवि पद्मानन्द भी अच्छे विद्वान् थे और इनकी रचित वैराग्यशतक कृति प्राप्त है ।
(६) युगप्रधान दादा जिनदत्तसूरि
जन्म --- ११३२, दीक्षा - ११४१, आचार्य पद ११६६, स्वर्गवास १२११ । सौधर्मीय परम्परा में ४४वें पाठ पर जिनवल्लभसूरि के पट्टधर दादा शब्द से जैन जगत् में विख्यात युगप्रधान जिनदत्तसूरि हुए। ये धोलका के निवासी थे । इनके माता-पिता के नाम थे— हुम्बड़ ज्ञातीय वाछिग एवं बाहड़ देवी । इनका जन्म ११३२ में हुआ था | विदुषी साध्वियों के उपदेशों से प्रतिबुद्ध होकर इन्होंने संवत् १९४१ में धर्मदेव उपाध्याय के पास दीक्षा ग्रहण की। इनका दीक्षा नाम था- सोमचन्द्र । इनके शिक्षा गुरु थे— सर्वदेवगण, अशोक चन्द्राचार्य और हरिसिंह आचार्य ।
आचार्य जिनवल्लभसूरि के आकस्मिक देहावसान हो जाने से आचार्य देवभद्र ने संवत् १९६६ वैशाख शुदी एकम् को बड़े महोत्सव के साथ आचार्य पद देकर इन्हें जिनवल्लभसूरि के पाट पर स्थापित किया । आचार्य पदारोहण के समय नाम परिवर्तन कर जिनदत्तसूरि नाम रखा ।
आचार्य बनने के पश्चात् जिनदत्तसूरि चैत्यवास को निर्मूल करने में कटिबद्ध हो गये और निर्भीकता एवं प्रखरता के साथ चैत्यवास की मान्यताओं का खण्डन करते हुए सुविहित / विधि पक्ष का प्रबल प्रचार करने लगे। इनकी उत्कृष्ट चारित्रिक सम्पदा और तप त्याग को देखकर बड़े-बड़े चैत्यवासी आचार्य--जयदेवाचार्य, जिनप्रभाचार्य, विमलचन्द्रगणि, मंत्रवादी जयदत्त, गुणचन्द्रगणि, ब्रह्मचन्द्रगणि आदि ने भी चैत्यवास का त्याग कर इनके पास दीक्षा ग्रहण की थी। अजमेर के तत्कालीन नृपति अर्णो राज, त्रिभुवनगिरि के महाराजा कुमारपाल आदि भी आपके भक्त थे और आपको उच्च सम्मान देते थे । त्रिभुवनगिरि के महाराजा कुमारपाल के साथ आपके चित्र की काळपट्टिका आज भी जैसलमेर ज्ञान भंडार में विद्यमान है । अनेक स्थानों पर विचरण करते हुए अजमेर, त्रिभुवनगिरि आदि स्थानों पर विधिचैत्यों की प्रतिष्ठाएँ कराई थी । लगभग सहस्राधिक साधु-साध्वियों को दीक्षा दी थी । विक्रमपुर आदि स्थानों पर अनेक उपद्रवों को दूरकर एक लाख तीस हजार जैनेतरों को जैन बनाकर ओसवंश को समृद्ध किया था । आपके प्रतिबोधित गौत्रों की संख्या ५२ है ।
महादेवी अम्बिका के द्वारा आपको युगप्रधान पद प्राप्त हुआ था। परम्परागत पट्टावलियों के अनुसार आप बड़े चमत्कारी भी थे । प्रथम अनुयोग / मंत्रग्रन्थ की प्राप्ति भी आपको हुई थी। चौंसठ योगणियों को प्रतिबोध दिया था । ५२ वीर एवं ५ पीर भी आपकी सेवा में उपस्थित रहते थे ।
१. इनके कृतित्व और व्यक्तित्व का विशेष अध्ययन करने के लिए महोपाध्याय विनयसागर लिखित 'वल्लभ भारती' देखें ।
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