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खण्ड ३ : इतिहास के उज्ज्वल पृष्ठ
विक्रम संवत् १२११ आषाढ़ बदी ग्यारस (परम्परा के अनुसार आषाढ़ सुदी ग्यारस) को आपका स्वर्गवास अजमेर में हुआ था । आज भी आपके चमत्कार सर्वत्र देखे व सुने जाते हैं, और आज भी आप भक्तों के मनोरथ पूर्ण करते हैं।
आपके द्वारा निर्मित कोई बड़ी कृतियां तो प्राप्त नहीं है । गणधर सार्द्ध शतक, सन्देह दोलावली, उपदेश कुलक आदि छोटी-मोटी २७ कृतियाँ प्राप्त होती हैं। इनमें से चर्चरी, उपदेश रसायन और काल स्वरूप कुलक अपभ्रंश भाषा की रचनाएँ हैं, जो हिन्दी के आदि काल में महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं।
(७) मणिधारी जिनचन्द्रसरि जन्म-११६७, दीक्षा-१२०३. आचार्य पद १२०५, गच्छनायक-१२११, स्वर्गवास–१२२३.
मणिधारी जिनचन्द्रसूरि के माता-पिता सेठ रासल और देल्हण देवी थे । ये जैसलमेर के निकट विक्रमपुर के निवासी थे। इनका जन्म विक्रम संवत् ११६७ भादवा सुदी आठम को हुआ था। ये जन्म से ही विलक्षण, अनेक शुभलक्षणों से युक्त, प्रतिभावान एवं संस्कारयुक्त थे। माता-पिता के साथ आचार्य जिनदत्तसूरि के दर्शनार्थ अजमेर पहुँचे और आचार्य की देशना से प्रतिबुद्ध होकर अजमेर में ही संवत १२०३ फाल्गुन सुदी नवमी को आचार्य से ही दीक्षा ग्रहण की । गणनायक जिनदत्तसूरि ने इनकी विशिष्ट प्रतिभा और योग्यता को देखकर इनके जन्म स्थान विक्रमपुर में ही संवत् १२०५ में वैशाख सुदी छठ के दिन इन्हें आचार्य पद प्रदान किया और नामकरण किया जिनचन्द्रसूरि । सम्भवतः जैन समाज में यह प्रथम ही उदाहरण होगा जबकि अत्यल्प ६ वर्ष की अवस्था में कोई व्यक्ति आचार्य बना हो । गणनायक जिनदत्तसूरि का स्वर्गवास होने पर संवत् १२११ में ये गच्छनायक बने ।
___ संवत् १२१४ में इन्होंने त्रिभुवनगिरि में शान्तिनाथ मन्दिर के शिखर की प्रतिष्ठा की । इसके बाद हेमदेवी नाम की आर्या को प्रवर्तिनी पद दिया। संवत् १२१७ में मथुरा में नरपति आदि आठ ममक्षओं को दीक्षा दी । इसी वर्ष में क्षेमन्धर सेठ को प्रतिबोध दिया और वैशाख शुक्ला दसमी को मरुकोट में चन्द्रप्रभ स्वामी के विधि चैत्य में कलश एवं ध्वज दंड की प्रतिष्ठा की। संवत् १२१८ में ऋषभदत्त आदि पांच साधु एवं जगश्री आदि तीन साध्वियों को दीक्षित किया । १२३१ में सागरपाट में पार्श्वनाथ विधि चैत्य में देवकुलिका की प्रतिष्ठा की । वहाँ से अजमेर पधार कर श्री जिनदत्तसूरि के स्मारक स्तूप की प्रतिष्ठा की। तत्पश्चात बब्बेरक ग्राम में गुणभद्रगणि आदि पाँच शिष्यों को दीक्षित किया । आशिका नगरी में नागदत्त मुनि को वाचनाचार्य पद दिया । महावन में अजितनाथ मन्दिर की प्रतिष्ठा की। इन्द्रपुर में गुणचन्द्रगणि के पितामह लाल श्रावक द्वारा बनाए हुए शान्तिनाथ विधि चैत्य में दंड, कलश और ध्वजा प्रतिष्ठित की । तगलाग्राम में अजितनाथ विधि चैत्य की प्रतिष्ठा की। संवत् १२२२ में वादली नगर में पार्श्वनाथ मन्दिर में दंड, कलश, ध्वजा आदि की प्रतिष्ठा कर, अम्बिका शिखर पर स्वर्ण कलश की स्थापना करवाई । नरपालपुर में एक अभिमानी ज्योतिषी को ज्योतिष शास्त्र में पराजित किया।
वहाँ से आचार्य जिनचन्द्र रुद्रपल्ली आये । रुद्रपल्ली में वहाँ राज्य सभा में पदमचन्द्राचार्य के साथ तमोवाद पर शास्त्रार्थ हुआ और इस शास्त्र चर्चा में जिनचन्द्रसूरि ने बिजय प्राप्त की। इस विजय के कारण ही वहाँ के आचार्य श्री के भक्त जयतिहट्ट के नाम से प्रसिद्ध हुए।
विहार करते हुए चौरसिन्दानक ग्राम के पास श्रीसंघ के साथ आचार्य ने पड़ाव डाला । वहाँ पर लूटपाट करते हुए म्लेच्छों के भय से संघ आकुल-व्याकुल हो गया । आचार्य ने अपने तपोबल से संघ का यह कष्ट दूर किया । म्लेच्छ सैनिक पास होकर निकल गए । वे संघ के पड़ाव को न देख सके।
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