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खरतर गच्छ का सक्षिप्त परिचय : महोपाध्याय विनयसागरजी
(२) जिनेश्वरसूरि प्रभावकचरित के अनुसार ये मूलतः मध्य देश (वर्तमान में उत्तर प्रदेश का मध्य भाग) के निवासी थे । ये कृष्ण नामक ब्राह्मण के पुत्र थे, इनका नाम पहले श्रीधर था और इनके एक भाई था, जिसका नाम श्रीपति था। दोनों भाई बड़े प्रतिभाशाली और मेधावी थे तथा वेद, वेदांग, इतिहास, पुराण, षट् दर्शनशास्त्र, स्मृतिशास्त्र आदि का इन दोनों ने विशेष अध्ययन किया था। विद्या पारंगत होकर ये दोनों भाई धारा नगरी आये और वहाँ के जैन धर्मावलम्बी उदारमना सेठ लक्ष्मीपति के यहाँ आश्रय लिया । एकदा आचार्य वर्द्धमान विहार करते हुए धारा नगरी आये। सेठ लक्ष्मीपति ने इन दोनों भाइयों का साक्षात्कार वर्द्धमानाचार्य से करवाया। दोनों भाई आचार्य के तेज और तप से अत्यन्त प्रभावित हुए और आचार्य के पास दोनों भाइयों ने दीक्षा ग्रहण कर ली । श्रीधर जिनेश्वर बने और श्रीपति बुद्धिसागर । इन दोनों का प्रौढ़ वैदुष्य देखकर आचार्य वर्द्धमान ने इन दोनों को आचार्य पद प्रदान किया, तभी से ये दोनों जिनेश्वरसूरि और बुद्धिसागर सूरि के नाम से प्रसिद्ध हुए।
अपने गुरु की मनोभिलाषा को पूर्ण करने हेतु अपने गुरु के साथ ही विचरण करते हुए अनहिलपुर पत्तन आये और अपने अगाध पाण्डित्य के कारण राजपुरोहित सोमेश्वर के यहाँ आश्रय लिया । चैत्यवासी आचार्यों को जब भनक पड़ी कि यहाँ सुविहित साधु आये हैं तो उन्होंने इनके निष्कासन के लिए षड्यंत्रपूर्वक अनेक प्रयत्न किए किन्तु वे सब निष्फल हुए । अन्त में महाराजा दुर्लभराज की अध्यक्षता में इनका सूराचार्य आदि विद्वानों के साथ शास्त्रार्थ हुआ। चैत्यवासी आचार्य शास्त्र-प्रमाणों के समक्ष निरुत्तर हए। महाराजा दुर्लभराज ने इन्हें खरतरविरुद दिया और इनके निवास स्थान के लिए त्रिपुरुष प्रासाद नामक मुख्य शिव मन्दिर के पास ही कनहट्टी में स्थान दिया। प्रभावकचरित के अनुसार तभी से वसतिवास की परम्परा प्रारम्भ हुई।1
इनके शास्त्रार्थ के बाद चैत्यवासियों का गढ़ ध्वस्त हो गया और वे राज सम्मानित होकर सर्वत्र निःसंकोच होकर सुविहित मार्ग का प्रचार-प्रसार करने लगे।
इनकी बहन ने भी दीक्षा ग्रहण की थी, जिसका दीक्षा नाम कल्याणमति था । आचार्य वर्द्ध मानसूरि ने ही इन्हें श्रेष्ठ प्रवर्तिनी पद दिया था।
- आचार्य जिनेश्वर सूरि का शिष्य समुदाय भी अत्यन्त विशाल था, जिनमें से प्रमुख-प्रमुख थेजिनचन्द्र, अभयदेव, धनेश्वर, हरिभ्रद, प्रसन्नचन्द्र, विमल, धर्मदेव, सहदेव, सुमति आदि। इनमें से जिनचन्द्र, अभयदेव, धनेश्वर जिनका दूसरा नाम जिनभद्र था तथा हरिभद्र को आचार्य पद एवं धर्मदेव, सुमति, विमल इन तीनों को उपाध्याय पद प्रदान किया था। धर्मदेव उपाध्याय और सहदेव गणि ये दोनों भाई थे। धर्मदेव उपाध्याय के शिष्य हरिसिंह जो भविष्य में आचार्य बने और सहदेव गणि ने पण्डित सोमचन्द्र को दीक्षित किया था, जो भविष्य में युगप्रधान जिनदत्त सूरि बने । सहदेवगणि के शिष्य अशोकचन्द्र थे, वे परवर्तीकाल में आचार्य बने । सुमतिगणि के शिष्य गुणचन्द्रगणि हुए, जो बाद में आचार्य बनने पर देवभद्राचार्य के नाम से प्रसिद्ध हुए। आचार्य जिनेश्वर ने अपने पाट पर जिनचन्द्रसूरि को स्थापित किया ।
१. प्रभावकचरित के अभयदेवसूरि चरित के अन्तर्गत जिनेश्वरसूरि का चरित ।
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