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________________ जैनधर्म : स्वरूप एवं उपादेयता : महोपाध्याय चन्द्रप्रभसागर साधना में सबसे बड़ा बाधक तत्त्व वासना या आसक्ति है । यह चिरकालीन संस्कारजनित है । इसे निर्मूल करने के लिए सबसे पहले मन को परिमार्जित करना अपेक्षित है । मानसिक संमार्जन हेतु जैन धर्म में द्वादश अनुप्रेक्षाओं / भावनाओं का अभ्यास अत्यन्त उपयोगी है । भावना तथा चिन्तना में एक अन्तर है । चिन्तना किसी विषय को सोचने तक सीमित है, जबकि भावना उसमें पुनः पुन: अवगाह्न, आवर्तन तथा तदनुरूप अनुभव से सम्पृक्त है । भावनाओं के विधिवत अभ्यास से चिरसंचित वासनाएँ ध्वस्त हो सकती हैं । ८५ जैनधर्म ने मन की वासनादिपरक अशुभ वृत्तियों के परिमार्जन और शुभ वृत्तियों को आत्मस्वरूप की ओर दिशा प्रदान करने के लिए ही योग और ध्यान जैसे रास्ते बताये । मन, वचन, काया के योगों से उपरत होकर आत्मपथ पर योजित होना योग है । ध्यान इस यौगिक सफलता की कुञ्जी है । ध्यान वास्तव में अन्तर्यात्रा है । मन, वचन, काया के योगों का स्थिरीकरण ही ध्यान है । मानसिक वृत्तियों को बाहरी भटकाव से अन्तरात्मा की ओर मोड़ना ध्यान की सहज प्रक्रिया है। ध्यान अध्यात्म का प्रवेश द्वार है और अध्यात्म शुद्धात्मा में विशुद्धता का आधारभूत अनुष्ठान है । जैन धर्म नैतिक जीवन का साध्य मोक्ष मानता है । मोक्ष वास्तव में संघर्ष का निराकरण एवं समत्व का संस्थापन है । इस मंच पर पहुँचने के लिए जैनधर्म सोपान है । यह बन्धन से मुक्ति की ओर जाता है । मोक्ष व्यक्ति के व्यक्तित्व की पूर्णता का परिचायक है । आध्यात्मिक उपासना के लिए तत्वज्ञान तथा तत्वानुशीलन उपादेय है । तत्वानुशीलनपूर्वक आचीर्ण धर्म संचालित क्रिया-प्रक्रिया का अपना असाधारण महत्व और प्रभाव होता है । इससे अन्तर्मन विमल और निर्ग्रन्थ बनता है । यदि हम जिनशासन के तत्वदर्शन पर विचार करें, तो लगेगा कि वह काफी वैज्ञानिक है । जैन दर्शन द्वारा स्वीकृत तत्व, पदार्थ भी अनेक दृष्टियों से विज्ञान सम्मत तत्त्वों एवं पदार्थों से मेल खाते हैं । विज्ञान का मूल आधार भौतिकवाद है। जैन दर्शन में भूत (मैटर) के लिए पुद्गल शब्द का व्यवहार हुआ है । इसके मूल में पूरण और गलन बढ़ना-घटना है, जिसका तात्पर्य उसकी अनेक रूपों में परिणति है । पुद्गल की सबसे छोटी इकाई परमाणु है । परमाणु अविभाज्य है । विज्ञान जिसे एटम कहता है, वह वास्तव में परमाणु नहीं है, वह स्कन्ध या वैज्ञानिक भाषा में मोलीक्यूल है । आज जो परमाणविक ऊर्जा उपलब्ध है, वैज्ञानिक उसे परमाणु विखण्डन से कहते रहे हैं, जो वास्तव में स्कन्ध के विखण्डन मे प्रगट हुई है । जैन दर्शन परमाणुवाद में जिस सूक्ष्मता में गया, विज्ञान उधर गतिशील है, ये दोनों के सुखद समन्वय की दिशा है । इसी प्रकार अनेकान्त तथा स्याद्वाद जैनधर्म की अनुपम देन है । पदार्थ का स्वरूप अपने में गुणों की अनेकता समेटे है, जिसे एक साथ प्रकट नहीं किया जा सकता। इसके आधार पर जैन दर्शन में तत्त्व को समझने और विवेचित करने में जिस पद्धति को स्वीकार किया गया है, वही अनेकान्त और वचन - प्रयोग की दृष्टि से स्याद्वाद का रूप लेती है । इसे सात प्रकार से कहा जाता है। जहाँ पदार्थ के अपने स्वरूप के सद्भाव, दूसरे के असद्भाव तथा दोनों एक साथ कहे जाने में अवक्तव्यता का आधार लिया गया है । यों भेद में अभेद सध जाता है । स्याद्वाद का बोध करने के लिए जैन दर्शन का प्रमाण-वाद व नयवाद सहायक है । इस सिद्धान्त की प्रामाणिकता व उपादेयता विश्व के सबसे बड़े वैज्ञानिक अल्वर्ट Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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