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________________ जीवन ज्योति : साध्वी शशिप्रभाश्रीजी अतः गृहकार्य से निवृत्त होकर आप भी सूत्र स्वाध्याय में प्रवृत्त हो जातीं। आपके पिताजी के यहाँ अमोलकऋषिजी महाराजकृत सूत्रों के हिन्दी अनुवाद की प्रतियाँ थीं, वे सब भी आपने पढ़ीं। इनसे आपका ज्ञान और गम्भीर हुआ। तप-अभ्यास-ज्ञानाभ्यास से आप तप की महिमा से भी परिचित हो गई थीं। दशवकालिक में तो धर्म को अहिंसा, संयम और तप रूप ही बताया है। आप जानती थीं कि कर्मों की निर्जरा में तप बहुत सहायक होता है, इसी से कर्मों की निर्जरा होती है। तप से ही आध्यात्मिक परिपूर्णता की सिद्धि होती है। आपके मानस में विचार उभरे-मेरा अन्तराय कर्म चल रहा है, चारित्रमोहनीय प्रबल है, तभी तो मेरी दीक्षा-भावना सफल नहीं हो रही है, अतः तप करना चाहिए जिससे कर्मों के बन्धन शिथिल हों और दीक्षा के भाव सफल हों। अतः आपश्री ने कई प्रकार की तपाराधना की। यथा-उपधान तप, नवपद ओली, विंशति स्थानक तप, पक्खवासा, सोलिया, मासक्षमण, कल्याणक एवं वर्षीतप । आप नवपद ओली की महिमा से तो परिचित थी ही । अतः इस तप की आराधना प्रारम्भिक आयु में ही शुरू कर दी थी। शहर में साध्वीजी महाराज होते तो उनके पास चली जाती अन्यथा मंदिर में ही अन्य साधर्मी बहनों के साथ नवपद ओली की साधना शुरू कर देतीं। इस प्रकार १८-१६ ओलियाँ हो चुकी थीं। वि. सं. १६६४ में पूज्या प्रवतिनी श्रीज्ञानश्रीजी म. सा० उपयोगश्रीजी म. सा० का अपनी शिष्या समुदाय के साथ जयपुर चातुर्मास हुआ। उनकी निश्रा में नवपद की ओलियाँ आपने बड़ी धूमधाम से संपन्न की। वि० सं० १९६६ में पुनः तपस्याओं की लहर आई । कारण था-पूज्या प्रवर्तिनी श्री ज्ञानश्रीजी म० सा०, उपयोगश्रीजी म. सा. अपनी गुरुबहिनों के साथ जयपुर में विराज रही थीं। वे धार्मिक क्रियाओं-तपस्या आदि के लिए प्रेरणा देती रहती थीं। फाल्गुन चौमासी का प्रतिक्रमण चल रहा था । अन्तिम कायोत्सर्ग के पश्चात् साध्वीजी ने वर्षी तप की प्रेरणा दी । भावना ने साकार रूप लिया। बहनों की प्रार्थना पर वहाँ विराजित ८ साध्वीजी (पू. श्री समर्थश्री जी म. सा., श्री चरणश्री जी म. सा., श्री इन्द्रश्री जी म. सा., सत्प्रेरिका श्री उपयोगश्री म. सा., श्री सुमनश्रीजी म. सा., श्री जीवनश्रीजी म. सा., श्री विचित्रश्रीजी म. सा. एवं वीरश्रीजी म. सा.) ने भी वर्षी तप करने का निश्चय किया। सोने में सुहागा हो गया। साथ ही लगभग ४०-४५ श्राविकाएँ भी तैयार हो गई। चरितनायिका श्री सज्जनकुमारीजी भी उपाश्रय जाती रहती थीं। आपको वर्षी तप की बात ज्ञात हुई तो आपने भी वर्षी तप करने की भावना पतिदेव और सासूजी के समक्ष रखी। सौभाग्य ही था कि आपको अनुमति मिल गई । प्रसन्नतापूर्वक आप भी वर्षी तप की साधना में सम्मिलित हो गईं। सभी तपस्वी बहनों की तपाराधना निर्विघ्नतापूर्वक चल रही थी। छह महीने व्यतीत हो चुके थे। एक बार सभी की भावना बरखेड़ा तीर्थ के दर्शनों की हुई। यह तीर्थ जयपुर से १० कोस दूरी पर है और यहाँ विराजित ऋषभदेव भगवान् की प्रतिमा तालाब से निकली है। इस भावना को मण्डल की प्रमुखा पूज्या श्री उपयोगश्रीजी के अपनी सहमति प्रदान कर दी। परमभक्त धाविका श्रेष्ठा अखण्ड सौभाग्यवती मखाणी बाई ने अपने उद्गार व्यक्त किये-बरखेड़े का तो छः री पालित संघ निकालना चाहिए । इस पर शिखरु बाई सा० तुरन्त बोल उठी-संघ तो आप जैसी भाग्यशाली ही ले जा सकती हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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