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________________ खण्ड १ | जीवन ज्योति समता का अभिप्राय निष्क्रियता नहीं है । आप निष्क्रिय होकर नहीं बैठ गयीं अपितु अपनी दीक्षा ग्रहण की भावना को साकार रूप देने का हर संभव प्रयास करती रहीं। इन प्रयासों से यद्यपि आपका पारिवारिक जीवन संघर्षमय बन गया; परन्तु आपने बुद्धि-सन्तुलन नहीं खोया, संक्लेश की स्थिति उत्पन्न नहीं होने दी । इस विषम परिस्थिति में भी ज्ञानार्जन एवं तपस्या आदि करती रहीं। ___ दीक्षा-पूर्व के प्रयास-ज्ञानाभ्यास-घर का कार्य निबटाकर आप एकांत में बैठ जातीं और प्रभुस्तुति में लीन हो जाती । आपने इसी समय में अपनी कवित्व शक्ति का प्रयोग कर अनेक भजन, वैराग्योत्पादक सज्झाय, स्तुति, चैत्यवन्दना की रचना की । कवित्व-कला आपको जन्मजात संस्कारों में पिताश्री से मिली थी। आपकी दीक्षा के बाद इन रचनाओं के संकलन 'सज्जन विनोद'; 'कुसमांजलि', जैनगीतांजलि' नाम से प्रकाशित हुए हैं जिन्हें पढ़-सुनकर श्रोता आज भी भक्ति रस से सराबोर हो जाते हैं । और लघुवय में रची उन रचनाओं से आपश्री की सहज प्रतिभा का अनुमान लगा सकते हैं। इसी समय का उपयोग आपने विभिन्न प्रकार की अच्छी-अच्छी पुस्तकें पढ़ने में किया । आपके पिताजी के यहाँ सभी प्रकार की पुस्तकों का संग्रह था, जिनमें उपन्यास, कहानी, चरित्र, पत्र-पत्रिकाएँ आदि थीं जो आपकी अध्ययन-रुचि के कारण अछूती नहीं रही होंगी । इन पुस्तकों को पढ़ने से आपके व्यावहारिक ज्ञान में भी वृद्धि हुई । जब आपने पंजाब मैट्रीक्यूलेशन की मैन्युअल ग्रामर आफ संस्कृत पढ़ी तो आप संस्कृत के काव्य-महाकाव्य आदि पढ़ने/समझने लगीं । रुचि और बढ़ी तो अमरकोश का एक काण्ड भी कण्ठस्थ कर लिया। (अमरकोश पूर्णरूप से संस्कृत भाषा में रचा गया है । इसके तीन काण्ड हैं और इसमें एक-एक शब्द के अनेक पर्यायवाची शब्द दिये गये हैं।) इस प्रकार आपका अध्ययन बराबर चलता रहा । मन्दिर उपाश्रय जाने का सिलसिला कभी चलने लगता और कभी टूट जाता। किन्तु साधुसाध्वियों के दर्शन होते ही रहते थे। __ कारण यह था कि आपके निवास स्थान कटले में काफी लम्बी-चौड़ी जमीन पड़ी थी (उस जमीन पर वर्तमान में अग्रवाल कॉलेज है) अतः साधु-साध्वी स्थंडिल के लिए वहीं पधारते थे, अतः आप श्री को आते-जाते अनायास ही उनके दर्शन का लाभ प्राप्त हो जाता था। साथ ही सीखने की-ज्ञानाभ्यास की प्रेरणाएँ भी मिल जाती थीं । कौमुदी सीखने की प्रेरणा पूज्याश्री सत्यश्रीजी म. सा. से मिली। पूज्याश्री पधारती तो पाठ ले लेती और मौका देखकर सुना भी देते। सूत्राध्ययन की रुचि आपको प्रारम्भ से ही थी। क्योंकि आप जानती थीं कि ज्ञान ही प्रकाश है, मिथ्यात्व का अन्धकार ज्ञान से ही दूर होता है, श्रद्धा भी ज्ञान से पुष्ट होती है और ज्ञान-ज्योति से कर्मों का भी क्षय होता है, ज्ञान से मुक्ति प्राप्त होती है। जैसा कि एक कवि ने कहा है कोटि जन्म तप तपैं, ज्ञानविन कर्म झरे जे । ज्ञानी के छिन मांहि त्रिगुप्ति नै सहज टरै ते ॥ ज्ञान समान न आन जगत में सुख को कारन । इहि परमामृत जन्म-जरा-मृति-रोग-निवारन । ज्ञान का महत्व तो गीता में भी स्वीकार किया गया है ज्ञानग्नि सर्वकर्माणि भस्मसात् कुरुते तथा ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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