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________________ जीवन ज्योति : साध्वी शशिप्रभाश्रीजी माओं, मेरु पर्वतों आदि का ज्ञान प्राप्त किया । परिणामतः मन्दिर, जिनदर्शन-वन्दन, प्रतिमा-पूजन आदि के प्रति आपकी दृढ़ श्रद्धा बन गई। __गुरुवर्याश्री से आपने स्वतः प्रेरित होकर मंदिर-मार्गी सामायिक-प्रतिक्रमण तथा जिन-प्रतिमादर्शन-वन्दन-पूजन विधि विस्तार से सीखी और उसी के अनुमार सामायिक आदि करने लगीं। जिनप्रतिमा-दर्शन-वन्दन-पूजन आपके जीवन के नित्य-नियम बन गये। आपने गुरुवर्याश्री से सप्तस्मरण, गौतमरास, शत्रौंजय रास आदि भी सीखे और इन्हें जब आप प्रातः सेठानी उमरावकुवर बाईसा० को सुनाती तो वे हर्ष-विभोर हो जाती। इस प्रकार धार्मिक क्रियाओं और पारिवारिक सुमेल में दो-ढाई साल कब बीत गये, पता ही नहीं चला। किन्तु अचानक इस व्यवस्था में परिवर्तन आया । हुआ यह कि उमरावकुंवरबाईजी एकाएक ही अस्वस्थ हो गईं, चिकित्सा के लिए जयपुर लाना पड़ा । आप भी इनके साथ जयपुर आ गई। चिकित्सा प्रारंभ हो गई। उन दिनों (वि० सं० १९८० में) जयपुर पूज्याश्री हुलासश्री जी म० सा० तथा पूज्या श्री चम्पाश्री जी म० सा० (महत्तरा पद पर इनका इसी वर्ष सं० २०४५ में स्वर्गवास हो गया है) इमली वाले उपाश्रय में विराज रहे थे। सेठानीजी की अस्वस्थता के बारे में सुनकर दर्शन देने पहुँचे । सेठानी जी की भावना को मान देकर प्रतिदिन दोनों साध्वीश्री दर्शन देने आती और मांगलिक सुनातीं।। कुछ तो श्रद्धापूर्वक मांगलिक श्रवण का प्रभाव और कुछ समुचित चिकित्सा का असर सेठानी जी के स्वास्थ्य में दिनोंदिन सुधार आने लगा । स्वास्थ्य सुधर जाने पर भी चिकित्सकों ने कुछ दिन और आराम करने का सुझाव दिया। भूआसा० की प्रेरणा से आप इमली वाले उपाश्रय में जाने लगी तथा प्रतिक्रमण आदि सीखने लगीं । आठ दिन में राइ देवसी प्रतिक्रमण सीख लिया, एक दिन में ही भक्तामर स्तोत्र, २ दिन में अजित शान्ति, डेढ़ (१-१/२) दिन में बड़ी शान्ति सीख ली । इनके अतिरिक्त जो भी पाठ शेष थे, वे भी अत्यन्त अल्प समय में सीख लिए। आपकी तीव्र स्मरण शक्ति, शालीन स्वभाव, शिष्ट व्यवहार आदि से गुरुवर्या पू० श्री हुलासश्री जी म. सा० तथा पूज्य श्री चम्पाश्री जी म. सा. बहुत प्रभावित हुईं। वे परस्पर विचार करतीसज्जनकमारी दीक्षा लेने योग्य है । इस जैसी बुद्धिशालिनी और प्रतिभाशालिनी दीक्षा ले ले तो जैन शासन में चार चाँद लग जायें । यदा-कदा ये शब्द सज्जनकुमारीजी के कानों में भी पड़ जाते । उनकी सुप्त वैराग्य-भावना पुनः अंगड़ाई लेने लगी। मात्र सोलह वर्ष की अवस्था में ही दीक्षा लेने को आप आतुर हो गईं। किन्तु अभी समय परिपक्व नहीं हुआ था, काललब्धि नहीं आई थी, प्रत्याख्यानीकषाय का क्षयोपशम नहीं हुआ था, अतः दीक्षा की बात तो दूर, धार्मिक क्रियाओं में भी अन्तराय आ गया। हुआ यह कि भूआसा० तो स्वस्थ होकर कोटा लौट गईं और आप जयपुर में ही रह गईं। आपके सास-ससुर और पतिदेव ने मन्दिर आना-जाना तो बन्द किया, धार्मिक क्रियाओं पर भी प्रतिबन्ध लगा दिया। आपका मन्दिर, उपाश्रय जाना बन्द हो गया। ___ इस स्थिति से आपश्री को दुःख तो हुआ पर मन में यह सोचकर कि अभी निकाचित चारित्रमोहनीय का उदय चल रहा है-मन में समता धारण कर ली। परिवार की शान्ति के लिए आपने मौन का आश्रय लिया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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