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________________ १२६ खण्ड १ | जीवन ज्योति - साध्वीश्री जयश्री जी म० प्रवर्तिनी सज्जनश्रीजी महाराज साहब के अलौकिक गौरवपूर्ण, गरिमामय, विराट् व्यक्तित्व का यथातथ्य रूप में चित्रण करने का प्रयास, अनन्त आकाश को अपने बाहुपाश में आबद्ध कर लेने और सागर को गागर में भर लेने के सदृश हास्यास्पद प्रयास है । फिर भी गुरुभक्ति भाव से भावित होकर इस परिप्रेक्ष्य में मंद बुद्धि का यह प्रयास है । सादगी, सरलता, सहिष्णुता, सज्जनता, स्नेहशीलता, सहृदयता, समता की प्रतिमूर्ति प्रवर्तिनी सज्जन श्रीजी महाराज साहब का व्यक्तित्व असाधारण, प्रेरक, गुणग्राही व्यक्तित्व है। इन्होंने समस्त दर्शनों का तलस्पर्शी ज्ञान प्राप्त किया है । यद्यपि इनमें अनेक उत्तमोत्तम गुण हैं लेकिन उन गुणों में वादित्व (शास्त्रार्थ करने में प्रवीण), गमकत्व (दसरे विद्वानों की रचनाओं को समझने समझाने में समर्थ), वाग्मीत्व (अपने वचन चातुर्य से दूसरों को वश में करना), कवित्व (काव्य एवं साहित्य की रचना करने वाले) ये चार प्रमुख गुण हैं। इनका सम्पूर्ण जीवन जप-तप-स्वाध्याय से परिपूर्ण है । इन्होंने अपने जप-तप-ज्ञान-ध्यान द्वारा जैन जैनेतर समाज को आलोकित किया है । एकाग्रता, समय की नियमितता, और अनुशासन की दृढ़ता के पक्के हैं । यद्यपि कोई भी व्यक्ति किसी एक क्षेत्र में वर्चस्व प्राप्त कर लेता है, तो उसे महान् की संज्ञा दे दी जाती है। लेकिन जो जीवन के सभी क्षेत्रों में धार्मिक, सामाजिक, आध्यात्मिक, राजनीतिक, शैक्षणिक आदि सभी क्षेत्रों में वर्चस्व प्राप्त करता है, उसे यदि हम “महामानव' की उपाधि भी दें तो अतिशयोक्ति नहीं होगी । इसी 'महामानव' उपाधि का ज्वलन्त उदाहरण प्रवतिनी सज्जनश्रीजी महाराज साहब का अनोखा, अनूठा व्यक्तित्व है । आपके सद्गुणों का एक सरल रेखांकन इस प्रकार है। सरलता और सहिष्णुता का भाव--सरलता और सहिष्णुता ही इनका कवच है। जो मन में सो वाणी में और जो वाचा में सो कर्म में । गुरुवर्या श्री जीवन में सहजरूप में हैं। वात्सल्यपूर्ण भाव-इनकी दृष्टि में कोई छोटा बड़ा नहीं, ये सभी ज्ञान-पिपासुओं को बिना किसी भेदभाव के ज्ञान प्रदान करती हैं तथा अपने स्नेह को वात्सल्यपूर्ण भाव से सभी जिज्ञासुओं पर समान रूप से उड़ेलती हैं। वैयावच्चभाव-सेवाभाव पक्ष इनके जीवन का अभिन्न अंग है। ये अपने सभी कार्यों को छोड़ कर पहले सेवा के कार्य को महत्व देती हैं। इनका हृदय किसी भी दुखी व्यक्ति को देखकर द्रवित हो जाता है और उसका दुःख दूर करने का हर संभव प्रयास करती हैं। इनके वैयावच्चगुण की कीर्ति चारों ओर फैली है । इन्होंने अपनी गुरुआणी की तन मन से प्रसन्न मुद्रा से, अप्रमत्त भाव से दर्घिकाल तक सेवा की। भाषण शैली-आपकी भाषण शैली चमत्कारपूर्ण है । भाषा हमेशा हित, मित और प्रिय रही है । इनकी सरल, मार्मिक अन्तस्तलस्पर्शी अमृतमयी वाणी और संसार की असारता के उपदेश से प्रभावित होकर कई बहिनों ने संसार के दावानल से मुख मोड़कर इनके पावन चरणों में स्थान पाया है। मुझे भी इनकी चरण रज बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ अर्थात् इनका सान्निध्य मुझे एक वसीयत के रूप में मिला है। मैं यह ऋण संभवतया इस जीवन में तो किसी भी रूप में चुकाने में अक्षम हूँ। इनके सान्निध्य में मैंने जो ज्ञान प्राप्त करने का प्रयास किया है, उसे मैं जीवन की महान् उपलब्धि समझती हूं। U Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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