SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 395
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ खण्ड ३ : इतिहास के उज्ज्वल पृष्ठ जिनालय के द्वारों की चौकी, पउडसाणा में जाली युक्त चौदह स्वप्न कराये । खेता व सरस्वती की मूर्ति हाथियों पर बनवाई। सं० १५८१ में जिनालयों के ऊपर पुल बनवाया । ६ आवली कोहर, कुतेक बनवाये । हजार गायें, घृत, गुड़, अन्न, रूई अनेक बार ब्राह्मणों को बाँटे । शीतलनाथ जिनालय-यह जिनालय डागा गोत्रीय श्रावकों का बनाया हुआ है। इसका निर्माणकाल शिलालेख प्रशस्ति के अभाव में निर्माता का नामादि निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता। वृद्धि रत्नमाला के अनुसार सं० १५०८ और लक्ष्मीचंद सेवक कृत तवारीख के अनुसार सं० १५०६ में डागा लूणसा मूणसा ने कराया था। अब मूलनायक प्रतिमा भी सं० १५६६ प्रतिष्ठित शांतिनाथ स्वामी की है और काष्टमय परिकर पर ताम्रजटित है। (६) चन्द्रप्रभ जिनालय--यह तिमंजिला मन्दिर चौमुख चन्द्रप्रभ स्वामी की प्रतिमाएँ हैं । शिलालेख प्रशस्ति के अभाव में मूलनायक प्रतिमा पर सं० १५०६ कार्तिक सुदी १३ के अनुसार इसके निर्माता भणशाली जयसिंह के पुत्र बीदा और सा० मेरा, रणधीर के पुत्र देवराजवत्सराज आदि परिवार ने निर्माण कराके जिनभद्रसूरिजी से प्रतिष्ठित कराया था । सं० १५५० में हेमध्वज रचित स्तवनानुसार मेघनादमण्डप श्रेष्ठि गुणराजकारित है।। (७) श्री ऋषभदेव जिनालय-यह जिनालय सं० १५३६ फा० सु० ५ के दिन जिनभद्रसूरिजी के पट्टधर श्री जिनचन्द्रसूरिजी ने कराई थी और निर्माता गणधर चोपड़ा सच्चू और उसके भतीज जयवंत द्वारा निमापित है। इस जिनालय में नवनिर्मित दादादेहरी सं० १९८० में गणिवर्यरत्नमुनिजी महाराज की उपस्थिति में यतिवर्य वृद्धिचन्द्रजी द्वारा प्रतिष्ठित है। ये सात मन्दिर दुर्ग पर एक स्थान पर संलग्न बने हैं, आठवाँ मन्दिर चौगाना पाड़े में है। (८) श्री महावीर स्वामी का मन्दिर-इसे चैत्य परिपाटी के अनुसार बरधिया साह दीपा ने निर्माण कराया था । वृद्धिरत्नजी ने सं० १५८१ में प्रतिष्ठित होने का उल्लेख किया है । जैसलमेर नगर में उल्लेखनीय कलापूर्ण सुपार्श्वनाथ जिनालय है जो सं० १८६६ में तपागच्छीय संघ ने निर्माण कराके श्री दीपविजय, नगविजय से प्रतिष्ठित कराया था। दादाबाड़ियाँ-जैसलमेर खरतरगच्छ का प्रधान केन्द्र होने के कारण नगर के चतुर्दिक दादाबाड़ियाँ बनी हुई हैं। देदानसर, कालानसर, गढीसर, गजरूपसागर, गंगासागर आदि का विशेष परिचय न देकर बेगड़ शाखा के महत्वपूर्ण शिलालेख सं० १६६३ का ही उल्लेख करता हूँ जहाँ छाजहड़ मंत्री कालू द्वारा रायपुर में मन्दिर कराया लिखा है। अमरसागर-लौद्रवाजी के मार्ग में अमरसागर नामक सुन्दर स्थान है जहाँ आदीश्वर भगवान के ३ जिनालय हैं जिसमें एक पंचायती मन्दिर सं० १६०३ प्रतिष्ठित है । अवशिष्ट दोनों वाफना सेठों द्वारा निर्मापित हैं । सेठ सवाईरामजी का मन्दिर छोटा है जो सं १८९७ में जिनमहेन्द्रसूरि प्रतिष्ठित है । इसकी प्रतिमाएँ विक्रमपुर से आई हुई हैं जो जिनभद्रसूरि प्रतिष्ठित थुल्ल गोत्र की और दूसरी संखवाल गोत्र की है । तीसरा विशाल कलापूर्ण मन्दिर सेठ हिम्मतरायजी का तालाब के किनारे है। इसका निर्माण १६२८ में होकर जिनमुक्तिसूरि द्वारा प्रतिष्ठित है। इस मन्दिर में राजस्थानी भाषा में सं १८६६ की ६६ पंक्ति की ऐतिहासिक प्रशस्ति है । दूसरी प्रशस्ति २६ पंक्ति की सं० १९४५ की लगी हुई है। हिम्मतरायजी के पिता प्रतापचन्दजी की सपत्नीक मूर्ति सामने पश्चिमाभिमुख चौतरे में स्थापन का उल्लेख है। मूलनायक आदिनाथ भगवान और द्वितल पर पार्श्वनाथजी और बीस विहरमान हैं । दाहिनी ओर दादा साहब के मन्दिर में सं० १६१७ प्रतिष्ठित व सामने अश्वारोही जीवनरामजी की मूर्ति सं० १९२८ की है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy