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खण्ड १ | जीवन ज्योति
प्रभु महावीर के इस उपदेश को चरित्रनायिका प. पूज्या प्रवर्तिनीजी श्री सज्जन श्री जी म. सा. ने अपने आदर्श जीवन में चरितार्थ किया है । कहते हुए गर्व होता है कि आपने उपरोक्त चारों ही दुर्लभ वस्तुएँ प्राप्त कर ली हैं। इनमें आदर्श मानवता के गुण हैं। आप में सम्यग्दर्शन, सम्यक्ज्ञान, सम्यक्चारित्र एवं सम्यक् तप चारों ही महान गुण विद्यमान हैं ।
प्रवर्तिनी जी जहाँ जैन आगमों के ज्ञाता हैं और इन आगमों का तल स्पर्शीज्ञान है वहीं आगमों के अनुसार धार्मिक क्रियाओं की आराधना में भी पूर्ण संलग्न रहने वाली महान विदुषी आर्या हैं । आपका आदर्श जीवन सभी आर्याओं के लिये और सभी श्रावक-श्राविका आदि साधकों के लिये अनुकरणीय है ।
आपने अपने जीवन में उपधान, नवपद ओली, विंशतिस्थानक तप ओली, कल्याणक तप, पखवासा तप, पंचमी सोलिया तप, दश पच्चखाण तप तेले, चौले, अठाई, मासखमण तप किये हैं । इस प्रकार आपका जीवन अहिंसा, संयम, तप मय रहा है । इसलिये शास्त्र के कथनानुसार मानवों के साथ-साथ देवताओं के भी आप वंदनीय हैं । आपके ऐसे धर्ममय व्यक्तित्व की हम जितनी प्रशंसा करें उतनी कम है ।
आपकी रचनायें
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बचपन में ही आपने धार्मिक संस्कारों के कारण प्रभु के स्तवन आदि की रचना आरम्भ कर थी । संयम धारण करने के बाद आपने ज्ञानार्जन किया और अनेक काव्य पुस्तकें लिखी यथासज्जन विनोद, कुमुमांजलि, पुष्पांजलि, गीतांजली, वीरगुण गुच्छक, आदि । इसी प्रकार आपने अनेक धार्मिक ग्रन्थों का अनुवाद भी किया जैसे कल्पसूत्र का आधुनिक हिन्दी में अनुवाद, व श्री देवचन्द्र गणिवर्य के रचित " अध्यात्म प्रबोध अपर नाम देशनासार" संस्कृत ग्रन्थ का हिन्दी अनुवाद, दादा गुरुदेव श्री जिनदत्त सूरि जी रचित चैत्य वंदन कुलक का हिन्दी अनुवाद, आदि ग्रन्थों का हिन्दी में सरल अनुवाद करके हिन्दी जानने वाले लोगों के ज्ञान प्राप्ति के लिए अनुवाद ग्रन्थ प्रकाशित कर धर्म की महान प्रभावना की है और सम्यक् ज्ञान का प्रचार किया है ।
अभिनन्दन के शुभ अवसर पर हम आपके दीर्घ जीवन की और पूर्ण स्वस्थता और अधिकाधिक धर्म प्रभावना की शुभ कामनायें करते हैं ।
0 साध्वी तत्त्वदर्शना श्रीजी म.
पू. गुरुवर्या श्रीजी के जीवन के विषय में क्या लिखूँ और क्या नहीं लिखूँ ? इनके जीवन में दूसरों को बढ़ती हुई प्रगति देख ईर्ष्या नहीं देखी। प्रतिकूल प्रसंगों में इन्हें क्रोधित होते नहीं देखा । हजारों भक्तों की भीड़ होते हुए भी भक्त बनाने का लोभ नहीं देखा, आगम ज्ञान होते हुए भी अभिमान नहीं देखा सबके बीच रहते हुए कभी माया करते नहीं देखा, शिष्या परिवार होते हुए भी शिष्याओं में आसक्ति नहीं देखी। यदि इनके जीवन को एक शब्द में ही कह दूँ जलकमलवत् जीवन जीती हैं तो कोई अतिशोयक्ति नहीं होगी ।
बड़ों के साथ नम्रता का व्यवहार छोटों के साथ भी आदर सत्कार का व्यवहार करती हैं । विद्वानों का सम्मान करती हैं । तो कम पढ़ लिखे को कम महत्व नहीं देती । दुःखी व्यक्ति को अधिक हृदय लगाती हैं। आने जाने वालों से या निकट रहने वालों से कम ही बातें करती है किन्तु दुःखी व्यक्ति से पहले बोलती हैं । सामान्य लोगों से ध्यान मग्न हो बातचीत करती हैं। पुस्तक पढ़ने में इतनी एकाग्रता कि चार व्यक्ति ढोल भी बजा दें तो पता नहीं चलता तो कोई आकर वन्दना करे या उन्हें धीरे से कुछ
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