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खण्ड १ | व्यक्तित्व परिमल : संस्मरण
१२६ कहे तो उनका ध्यान उस ओर होना बहुत ही मुश्किल है। अस्वस्थ अवस्था में भी पढ़ने-पढ़ाने का क्रम नहीं
ट्टा । इस अवस्था में भी स्वयं का कार्य स्वयं करती हैं। कभी किसी से उपालम्भ की भाषा में नहीं बोलती हैं। इन सब गुणों से युक्त गुरुवर्या श्री को देखते हए १-२ वर्ष नहीं १० वर्ष हो गये निकटता से देखते हए, किन्तु कहीं भी जीवन के गुणों में बनावटीपन नहीं देखा। सहज स्वाभाविक गुणों को ही देखा है व देख रही हैं। गुरुदेव से प्रार्थना करती हूँ कि चिरायु बन शासन-सेवा में रहती हुई गुरुवर्याश्री अपने गुणों की सौरभ दिग-दिगन्तों में फैलाती रहें व इनके जीवन के गुणों का मेरे जीवन में भी विकास हो। इसी शुभेच्छा के सथ ।"
0 साध्वी सुदर्शनाश्रीजी म.
(सुशिष्या स्व० साध्वी श्री विचक्षणश्रीजी म० सा०) धर्म-साधना के क्षेत्र में पुरुषों की तरह नारी वर्ग ने अपनी धीरता, वीरता, तितिक्षा, कष्टसहिष्णुता और पुरुषार्थ-पराक्रम का विशिष्ट परिचय दिया है। जैनशासन-परम्परा में अनेक तपःपूता साधिकाओं का जीवन हमारे लिए आदर्श और प्रेरणास्रोत है।
आगमज्ञा, आशुकवयित्री, प्रखरवक्त्री प्रवर्तिनी श्रीसज्जनश्रीजी म.सा. का जीवन त्याग वृत्ति, सरलता आदि अनुकरणीय है। उच्च कोटि की विद्वत्ता एवं निर्मल चारित्र ही आपकी योग्यता का परिचायक है । महान विभूति का जीवन अद्भुत है । आपकी भव्य तेजस्विता और शान्तिमयी मुद्रा देखकर मस्तक झुक जाता है।
__ मैंने आपको अति निकटता से देखा है-जब आप परमपूज्या समतामूर्ति प्रवर्तिनी गुरुवर्याश्री विचक्षणश्रीजी महाराज साहब से कुछ समाधान या विचार-विमर्श करना होता तो आप एक विनीत शिष्या की तरह उनके चरण-कमलों के समीप ही बैठती थीं। ऐसा विनय गुण का महान् आदर्श और कहाँ देखने को मिलेगा?
आपकी अति पवित्र ८२वीं जन्मतिथि पर मैं अपनी मंगल-भावना व्यक्त करती हूँ कि आपश्री .. स्वास्थ्य लाभ कर एवं दीर्घजीवी होकर समाज को और हम सबको अपने चिन्तन, मनन, लेखन, प्रवचन से अहर्निश लाभान्वित करती रहें।
0 साध्वी विनीताश्रीजी स० सा०
(सुशिष्या स्व० साध्वी विचक्षणश्रीजी म० सा०) सज्जन सज्जनता धरी, करे सज्जन काम ।
सौरभ चिहुँ दिशि विस्तरी, जिनका सज्जन नाम ।। अनादिकालीन संसार में जीवात्माएँ कर्मावरित हो नानाविध दुःखानुभव करती है पर प्रबल पुरुषार्थी आत्माएँ सम्यग्ज्ञान-दर्शन व चारित्र की आराधना-साधना से अष्टकर्म विजेता बन मोक्षगामी बनती हैं।
कई आत्माएँ अष्टकर्मों में से कुछेक कर्मों का क्षयोपशम कर कुछ विशेष योग्यता प्राप्त कर लेती है । सातावेदनीय कर्म के उदय से साता प्राप्त कर नैरोग्ययुक्त होती हैं तो कोई ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से प्रतिभासम्पन्न होती हैं इस प्रकार कई पुण्यात्माएँ कर्मों के दलोपशम से कुछ विशिष्टता युक्त होती हैं।
प्रवर्तिनी श्री सज्जनश्रीजी म. भी ज्ञानावरणीय के क्षयोपशम से जीवन में कुछ विशिष्टता प्राप्त हैं अर्थात बुद्धिवैभव-संपन्न हैं ।
खण्ड ११७ Jain Education International
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