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________________ १३० खण्ड १ | जीवन ज्योति मैं सं. १९९६ में प० पू० प्र० जैन कोकिला विचक्षणश्रीजी म. सा० के कर कमलों में दीक्षित हो सं० १९६८ में इन्हीं गुरुवर्या के साथ जयपुर आई उस समय मैंने देखा कि आप प्रतिदिन गुरुवर्या के साथ भी धार्मिक चर्चा किया करते थे। यों इनका पूर्व परिचय था ही । सं० १९८२ में पू. प्र. अध्यात्मनिष्ठा सुवर्णश्रीजी म. सा. के साथ गुरुवर्याश्री ने चातुर्मास किया था, आप दोनों विशिष्ट रूप से पठन-पाठन लेखन-अध्ययन व धर्म-चर्चा करते थे। एक दिन का प्रसंग है कि प्रेरणास्पद बातें करते अनायास ही प्र. विचक्षणश्रीजी म. सा. के मुख कमल से सज्जन बाई की जगह सज्जनश्रीजी संबोधित हो गया, कहा कि सज्जनश्रीजी ! देखो यह सूत्र कितना बढ़िया है, यह स्तवन सुन्दर भावार्थ युक्त है इसे भी लिखकर याद कर लेना। आपके हस्ताक्षर मोती के दाने से सुन्दर होने से प्रायः लेखन कार्य गुरुवर्याश्री आपसे ही करवाते थे। तब सज्जनबाई ने कहा कि महाराजश्री ! अभी मेरे अन्तराय कर्मों का अन्त कहाँ, जो मैं सज्जनश्री बन पर हाँ आपश्री की इस अमृतमय भविष्यवाणी की मैं शुकन गांठ बाँधती हूँ कि मैं शीघ्र ही आपश्री की भविष्यवाणी को सफल कर संयमित जीवन स्वीकार कर सज्जनश्री बनूं । यह किसे विदित था कि गुरुवर्याश्री के मुख कमल से निसृत वाणी निकट भविष्य में ही सिद्ध हो जायेगी। किन्तु कभी-कभी ऐसा होता है कि किसी महापुरुष की वाचा किसी-किसी के लिए वरदान रूप सिद्ध होती है वैसे ही यह बात विदुषी सज्जनबाई के लिए चरितार्थ हुई। पू० विद्वद्वर्य मणिसागर जी म. सा. के निश्रा में सं० १६६८ के आसोज माह में जयपुर में उप., धान तप हुआ तो उस समय आपने भी सजोड़े उपधान तप किया, संसार कारागार से मुक्त होने हेतु आपकी वैराग्य भावना उत्तेजित हो उठी, अब एक क्षण भी इस कारागार में रहना असह्य हो गया, अथक परिश्रम किया । "श्रम सफलता की कुंजी है" आपके श्रम सफल होने के आसार नजर आने लगे । पू. साधुजी म. सा. व साध्वीजी म. सा. ने कल्याणमलजी को उद्बोधित किया कि सज्जनबाई की इतनी तीव्रतम भावना पर रोक लगाकर आप अंतराय के भागी क्यों बन रहे हैं ? इन्हें आज्ञा प्रदान कर अनन्त पुण्योपार्जन करिये । त्यागी वर्ग के प्रेरणाप्रद उपदेश ने श्री कल्याणमलजी का हृदय परिवर्तन कर दिया । उन्होंने गद्गद् हो शीघ्र ही १९६६ के वैसाख मास में आज्ञा पत्र लिख दिया-आज्ञा प्राप्ति के साथ सज्जनबाई का मन मयूर नाच उठा, शुभस्य शीघ्रम्, इस उक्ति को अपनाकर शीघ्र ही मुहूर्त निकलवाया । वैरागन सज्जनबाई की उत्कृष्ट चारित्र भावना के प्रभाव से आषाढ़ शुक्ला दूज का मुहूर्त आया । दीक्षोत्सव की तैयारियाँ धूम-धाम से होने लगीं मानो गुलाबी नगरी में चारों ओर चारित्र की धूम मच रही है। आपकी दीक्षा की तैयारियाँ देख चौथीबाई कोचर भी भावावेग में आ गई और परिवार की आज्ञा प्राप्त कर आपके साथ ही संयम लेने को उद्यत हुई । प. पू. मणिसागरजी म. सा. एवं त्यागमूर्ति ज्ञानश्रीजी म. सा. व उपयोगश्रीजी म. सा. के कर-कमलों से आप दोनों की दीक्षा सानंद संपन्न हुई । आपका नाम सज्जनश्रीजी व चौथीबाई का विबुधश्रीजी घोषित किया। __ आप प्रवजित हो ज्ञान-साधना में सततोद्यमी रहीं, पू. प्र. ज्ञानश्रीजी म. सा. से आगमों का (जैनागमों का) वांचन किया, अपनी अनवरत ज्ञानोपासना से संसार के चोटी के विद्वानों की कोटि में आपने विशिष्ट स्थान पा लिया, अद्यावधिपर्यंत संयम आराधना सह गुरुजनों की सेवा में सतर्क प्रहरीवत सदैव सावधान रहने के साथ-साथ सरस्वत्युपासना में अनवरत संलग्न रहे मानो आप साक्षात् सरस्वतीसुता हैं। आपकी बौद्धिक सूक्ष्मता ने किसी भी विषय को अछूता नहीं रखा है। आप गहन से गहन विषय का प्रतिपादन-स्पष्टीकरण इतनी सरलता से करते हैं कि श्रोता उसे हृदयंगम कर हर्ष-विभोर बन जाते हैं एवं प्रश्नकर्ता अपना सही समाधान पा प्रसन्नचित हो लौटते हैं। www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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