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________________ खण्ड ३ : इतिहास के उज्ज्वल पृष्ठ ११७ एवं वर्तमान के वातावरण के कारण लक्ष्मी पूर्ण विरक्ता बन गईं । बुद्धि इतनी तीव्र थी कि एक बार सुन लिया सदा के लिए हृदयंगम हो गया। प्रतिभा इतनी प्रखर कि कैसा भी प्रश्न क्यों न हो, तुरन्त जवाब तैयार, साहस इतना कि बड़ों-बड़ों को बेहिचक जवाब दे देती। माता से अधिक जल्दी थी उन्हें दीक्षा ग्रहण की । दादाजी, नानाजी एवं श्वसुरपक्ष तीनों की ममता का केन्द्र लक्ष्मी के लिए इतना आसान नहीं था घर छोड़ना । किन्तु जहाँ संकल्प है, वहाँ सिद्धि है । एक सुनहरा प्रभात आ ही गया, माता-पुत्री के संयम-ग्रहण का । वि. सं. १९६४ माघ. सु. ५ को दोनों सिंहश्रीजी म. सा. का शिष्यत्व स्वीकार शासन को समर्पित हो गई। माता का नाम जयवन्तश्रीजी रखा। उन्होंने पुत्री के रूप में जो अनमोल रत्न शासन को समर्पित किया, उनका यह त्याग सदा अविस्मरणीय रहेगा। होनहार थी ही योग्य निमित्तों ने उन्हें महान् विदुषी बना दिया। आप कई विषयों में निष्णात थीं किन्तु आगम-अध्ययन के प्रति आपकी विशेष रुचि एवं प्रयास रहा । यही कारण था कि आपका आगम-ज्ञान अगाध एवं मार्मिक था । आपने अपनी विलक्षण प्रतिभा एवं सतत-चिन्तन के आधार पर चालू कई मान्यताओं को नया मोड़ दिया। कई बार वे शास्त्रीय चर्चा में अच्छे भले विद्वान मुनिवरों को विषय की अतल गहराई में ले जाकर चकित कर देती थीं। आप ओजस्वी प्रवचनकार थीं, आपकी प्रवचन-शैली इतनी निराली एवं रसपूर्ण थी कि एक-एक शब्द से अमृत रस झरता था । आपका आगमिक उच्चारण स्पष्ट शुद्ध एवं प्रवाहयुक्त था । आगम ज्ञान एवं चिन्तन को स्थायित्व, आपके द्वारा किये गये शासन-प्रभावना के महान् कार्य, मन्दिर, दादावाड़ी, पाठशाला, आयंबिल भवन"""""धर्म प्रचार एवं सुयोग्य शिष्या-मण्डल आपकी स्मृति को सदा ताजी रखेगा । आप केवल विदूषी ही नहीं तपस्विनी भी थीं । ७४ वर्ष की उम्र में आपने मास-क्षमण जैसी महान तपस्या की । सब कुछ होते हुए भी एक बात के लिए तो हम अपना दुर्भाग्य समझेंगे कि आपकी प्रतिभा से भावी-पीढ़ी लाभान्वित हो सके ऐसा कोई कृतित्व समुपलब्ध नहीं हो सका । मात्र वैराग्य-शतक का संक्षिप्त विवेचन या रत्नत्रयः विवेचन आपके द्वारा लिखित उपलब्ध होता है । आपकी १३-१४ शिष्यायें हैं। आप अन्तिम अवस्था में अस्वस्थता के कारण बाड़मेर में स्थानापन्न हो गई थीं। वहाँ वि. सं. २०३६ की पौष १० को समाधिपूर्वक आपका स्वर्गवास हुआ । ज्ञानपंचमी को जन्म, पो० १० को स्वर्गवास मानो प्रकृति ने आपके लिए मुहूर्त निकालकर रखा हो। ___ वर्तमान में साध्वी श्रीराजेन्द्रश्रीजी म., श्रीचन्द्रयशाश्रीजी म., श्री चन्द्रोदयश्रीजी म., श्री चंपक श्रीजी म., आदि आपकी प्रखर शिष्याओं में से थी । वर्तमान में साध्वी श्री प्रकाशश्रीजी म. विजयेन्द्रश्रीजी म., स्वयंप्रभाश्रीजी म., कोमलश्रीजी म., रतनमालाश्रीजी म., विद्य त्प्रभाश्रीजी म. आदि आपकी शिष्या समूह रूप साध्वीमण्डल विचरण कर रहा है। खण्ड ३/१६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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