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________________ ११६ प्रवर्तिनी सिंहश्रीजी के साध्वी समुदाय का परिचय : साध्वी हेमप्रभाश्रीजी के सान्निध्य से उन्होंने अध्ययन के साथ-साथ अपने आत्मबल एवं वैराग्य-भावना को दृढ़ बनाया। चातुर्मास बाद वि० सं० १९७६ मि० सु० ५ को दीक्षा ग्रहण कर पू० वल्लभश्रीजी म. सा. की प्रधान शिष्या बनीं । अध्ययन के साथ आप सामुदायिक विचार-विमर्श, देखभाल आदि का उत्तरदायित्व निभाने में अपनी गुरुवर्या का पूर्ण सहयोग करने लगीं। आपकी सूझ-बूझ इतनी विवेकपूर्ण थी कि बिगड़ती बात बना लेती थीं। पूज्या प्रवर्तिनी जी के पास आपका पद सदा ‘मन्त्री' जैसा ही रहा । गुरुसेवा आपके जीवन का सर्वस्व था। शिष्य का विनय, गुरु के वात्सल्य को खींचता है । जहां ये दोनों होते हैं, वहाँ आनन्द का पूछना ही क्या ? आपने अपने समूचे अस्तित्व को गुरु में विलीन कर दिया था। उनकी अपनी इच्छा, भावना कुछ भी नहीं है, सब कुछ गुरु समर्पित है। आप उन शिष्यों में थीं, जो गुरुहृदय में बसकर 'धन्यतम' की कोटि में आते हैं। इसी के परिणामस्वरूप प० पू० प्रमोदश्रीजी म. सा. के स्वर्गवास के बाद शिव-समुदाय का संचालन आपके हाथों सौंपा गया। आज आपकी उम्र ८८ वर्ष की है फिर भी अपने उत्तरदायित्व को बड़ी कुशलता के साथ निभा रही हैं। आपकी दीर्घायु की कामना के साथ शासन देव से प्रार्थना है कि आपके सफल नेतृत्व में, समुदाय अधिकाधिक रत्नत्रय की आराधना करती, शासन प्रभावना करती हुई समृद्ध बने। वर्तमान में विचरण कर रही साध्वी श्री कुसुमश्रीजी म०, निपुणश्रीजी म०, कमलप्रभाश्रीजी म० आदि प्रवर्तिनी श्री वल्लभश्रीजी म० सा० की ही विदुषी शिष्यायें हैं। प. पू. प्रतिनीजी विमलश्रीजी म० सा० आपका जन्म स्थान एवं समय उपलब्ध न हो सका । आप शिवश्रीजी म.सा० की शिष्या थीं। आपका सबसे बड़ा योगदान है प. पू. प्र. श्रीप्रमोद श्रीजी म.सा. जैसे व्यक्तित्व का निर्माण करना। पू. शिवश्रीजी म.सा० तो मातापुत्री (पू० जयवन्तश्रीजी म., प्रमोदश्रीजी म.) को दीक्षा देकर उनकी शिक्षा-दीक्षा का सारा उत्तरदायित्व पू. विमलश्रीजी म. को सौंपकर अजमेर पधार गई थीं। करीब ११ महिनों बाद आपका स्वर्गवास भी हो गया था। अतः बालसाध्वीजी प्रमोदश्रीजी, विचक्षण बुद्धि और विलक्षण प्रतिभा को सफल बनाने का सारा उत्तरदायित्व आप पर ही था । आपने उसको बखूबी निभाया और एक तेजस्वी व्यक्तित्व का निर्माण कर शासन की अपूर्व सेबा की । आपका यह योगदान सदा अविस्मरणीय रहेगा। प. पू. प्रवर्तिनीजी प्रमोदश्रीजी म. सा. जहाँ पधारती वहाँ का कण-कण प्रमुदित हो जाता। धरती का कण-कण प्रमोद मधुर बन जाता । शारीरिक सौन्दर्य से बाह्य-व्यक्तित्व एवं ज्ञान की आभा से आपका आन्तरिक व्यक्तित्व देदीप्यमान था । आप फलोदी में सूरजमलजी गुलेछा की सद्धर्मपरायण पत्नी जेठी देवी की कुक्षि से वि. सं. १९५५, कार्तिक शु. ५ को जन्मी थीं । आपका नाम लक्ष्मी था । वास्तव में आप रुवरूप एवं गुण से लक्ष्मी ही थी। ज्ञानपंचमी को जन्मी लक्ष्मी शायद ज्ञान साधना के लिए ही न अवतरित हुई हो । युवावस्था में ही पति की मृत्यु हो जाने में लक्ष्मी की माता का झुकाव धर्म की ओर बढ़ने लगा। प. पू. गुरुवर्या श्रीसिंह श्रीजी म.सा० के सम्पर्क ने उनमें एक नई चेतना, नई-स्फूर्ति और नया जीवन जीने की तीव्र आकांक्षा पैदा कर दी। राग के स्थान पर उनके मन में वैराग्य घोल दिया। इधर लक्ष्मी की सगाई ढाई साल की उम्र में ही, संपन्न ढढ्ढा परिवार के सपूत श्रीलालचन्दजी से कर दी गई थी । जैसे-जैसे बड़ी होती गई, माता के साथ उसका भी गुरुवर्या से सम्पर्क बढ़ता गया । ६ वर्ष की उम्र होते-होते तो पूर्वजन्म के संस्कार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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