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________________ खण्ड १ | जीवन-ज्योति ४७ वहाँ विशाल दादाबाड़ी निर्मित हो गई है और एक ऐतिहासिक स्थान बन गया है। यह स्थान जयपुर से सिर्फ १०० किलोमीटर दूर है। जयपुर वाले प्रति पूनम बस लेकर आते हैं व पूजा, सेवा, रात्रि जागरण, जीमन आदि करते हैं। प्रतिवर्ष फाल्गुन की अमावस के दिन मेले का आयोजन बड़े धूमधाम से जयपुर संघ की ओर से किया जाता है, स्वामि-वात्सल्य भी होता है। ___ इस सब का प्रमुख हेतु है-श्रद्धय दादागुरु जिनकुशलसूरीश्वरजी का कलिकाल में कल्पवृक्ष के समान होना। ऐसे चमत्कारिक स्थान में पधारने का सौभाग्य चरितनायिकाजी और उनकी शिष्य मंडली को भी प्राप्त हुआ। ५ दिन रुके, पूजा-भक्ति की और श्रद्धा-सुमन अर्पित किये। जयपुर संघ की आग्रह भरी विनती को स्वीकार करके चरितनायिकाजी जयपुर पधारी । वैराग्यवती तेजबाई साथ थीं। उनकी दीक्षा का मुहूर्त निकलवाया पंडित प्रवर भगवानदासजी के पास तो वि. सं. २०२६ वैशाख कृष्णा दशमी का निकला। दीक्षा की तैयारियाँ होने लगी। इसी बीच शासन प्रभावक पूज्य अनुयोगाचार्य कान्तिसागरजी म. सा. एवं साहित्य शास्त्री श्री दर्शनसागरजी म. सा. कलकत्ते का ऐतिहासिक भव्य चातुर्मास और कलकत्ता संघ की ओर से सम्मेतशिखर तीर्थ पर कराये गये उपधान तप की आराधना खूब धूमधाम के साथ सम्पूर्ण करवाकर मार्गस्थ तीर्थों की यात्रा करते हुए जयपुर पधारे। चरितनायिकाजी के अत्याग्रह से दीक्षा तक रुकने की स्वीकृति दी। आपश्री की निश्रा में धूमधाम से तेजबाई की दीक्षा सम्पन्न हुई। दीक्षोपरान्त नाम दिया गया 'जयश्री' और चरितनायिका पू. सज्जनश्री जी की शिष्या घोषित की गईं। पू. गुरुदेव को पालीताणा पहुंचना था अतः उसो सन्ध्या को जयपुर से विहार कर दिया । चरितनायिकाजी पन्द्रह दिन जयपुर में और रुके । ज्येष्ठ मास शुरू होने वाला था, गर्मी अपना प्रकोप दिखा रही थी किन्तु चातुर्मासार्थ पहुंचना ही था। अतः वैशाख शुक्ल १० को ही विहार कर दिया। मार्गस्थ बैगट (प्राचीन मत्स्यदेश की राजधानी--विराटनगर) में अति प्राचीन मन्दिर के दर्शन किये। मन हर्षित हो गया। वहाँ से अलवर पहुँचे। वहाँ भी रावण पार्श्वनाथ (अति प्राचीन) मन्दिर में अवस्थित विशाल प्रतिमा के दर्शन करके मन झूम उठा । वहाँ से प्रस्थान कर दिल्ली के समीप महरोली में पहुंचे। ___ महरौली मणिवारी दादा श्री जिनचन्द्रसूरि का अग्नि संस्कार स्थान है। उस युग में दिल्ली यहीं बसी हुई थी। उस समय यहाँ माणक चौक था, जिस स्थान पर आज गुरुदेव का स्थान बना हुआ है। पूज्य दादा गुरुदेव ने अपने ज्ञान बल से अपना अन्तिम समय जानकर भक्तों से कहा कि मेरी बैकुण्ठी (रथी) को बीचवासा मत देना। लेकिन शोकाकुल भक्त गुरुदेव के वचनों को भूल गये, बीचवासा दे दिया। बस, फिर क्या था? सैंकड़ों व्यक्ति लग गये फिर भी रथी टस से मस न हुई। हाथी लगाया, उसका बल भी विफल हो गया। तब तत्कालीन दिल्ली नरेश अनंगपाल ने वहीं अग्नि संस्कार की आज्ञा दे दी। अग्नि संस्कार हुआ और भक्तों ने वहीं स्तूप बनवा दिया। वही स्थान आज दादाबाड़ी के रूप में है। यहाँ प्रतिवर्ष भादवा शुदी ८ को मेला लगता है। अपनी शिष्या मंडली के साथ चरितनायिकाजी यहाँ दो दिन रुकी, दिल्ली के गण्यमाण्य श्रावक भी आ गये थे। पूजा का खुब ठाठ रहा, आने-जाने वालों का मेला-सा लगा रहा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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